प्रिय पाठक वृंद,
     सादर नमन,
आप सभी को मंगल प्रणाम, सुप्रभात, 
   मां सरस्वती का आशीर्वाद सदा बना रहे, श्री गणेश जी व माता लक्ष्मी जी, मां सरस्वती जी इन तीनों का संयुक्त आशीर्वाद मुझ पर वह आप सभी पर हो। 
    आज प्रवाह की इस यात्रा में हम बात करेंगे, मानवीय गरिमा पर, हम सभी मनुष्य हैं, भूल होना मानवीय स्वभाव है, परंतु चुप होने पर भी उसे न मानना, केवल अपनी ही है पर अड़े रहना, यह भी मानवीय गरिमा के विपरीत व्यवहार ही माना जायेगा, हमारी वाणी दरअसल वह है, जो हमारी अन्य से या तो दूरी बना देती है 
या नजदीकी बना देती है, विपरीत समय आने पर भी जो सदा विनम्र हो, सही समय में भी अपने सद्गुणों को न छोड़ें, निरंतर जो भी मानवीय गरिमा के अनुकूल हो, वह बर्ताव ही निरंतर करें, यह केवल प्रभु की मंगल कृपा मात्र से ही संभव हो सकता है। 
       मनुष्य जीवन में धन , वैभव, यह सब उसकी कृपा व आशीर्वाद मानकर सदैव विनम्र भाव से ग्रहण करें, सतत अभ्यास करते रहें , अपनी दुर्बलताओं पर हम कार्य करें , वह जो भी सद्गुण हममें व अन्य में हो, उन पर ही दृष्टि रखें, यह समस्त संसार गुण- अवगुण से युक्त है, हम अपने नीर-क्षीर , विवेक का उपयोग करें, 
सजग रहकर अपना कार्य करें, बस यही हमारी उपलब्धि है। 
      अपने कार्य को संपूर्ण ईमानदारी से करने की कोशिश करें, 
फिर उसे परमपिता पर सब भार छोड़ दें, इसका यह अर्थ नहीं है 
कि हम कोशिश ही न करें, अपनी सही कोशिश नित्य, निरंतर 
करते रहें, समावेशी भाव से कार्य करें, अपने नित्य कर्म वह जो भी कर्म आपका हो, वह संपूर्ण ईमानदारी से करने का प्रयास करें, 
वह प्रकृति निश्चित ही आपको अपने अमूल्य उपहार से नवाजेगी, 
सत्य पथ पर अडिग रहे, प्रभु से निरंतर प्रार्थना करें।
        उनके आश्रय के बिना समस्त उपलब्धियां भी किसी काम की नहीं, कृपा- शरण में ही रहें।
         अन्य शरणागति का भाव रखते हुए अहोभाव से उस परमात्मा का नित्य मंगल सुमिरण अवश्य करें, उसके कृपा- प्रसाद को नित्य अनुभव करें।
        मानवीय गरिमा को न भूले, सतत अभ्यास द्वारा, नित्य निरंतर ही उसकी कृपा में रहें।
       शरणागति जब उसकी हो जाती है, अन्य की शरण फिर जाना ही नहीं पड़ता, उसकी कृपा को अनुभव करते रहें। 
    विशेष:- हमारी वाणी द्वारा ही हम कार्य को बनाते है, या बिगाड़ते हैं, अतः वाणी का ध्यान रखें, वाणी ही कार्य को बनाती है, या बिगाड़ती है। परम भाव से प्रभु स्मरण करते रहें, मानवीय मूल्यों व गरिमा को कभी ना भूले।
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जयभारत 
जय हिंद


प्रिय पाठक गण,
   सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम,
  प्रवाह की धारा नित्य बहती रहे, हम सजग हो, सजग रहे व
सजग करें, यही मूल भाव इस प्रवाह का है, 
       प्रवाह का अर्थ ही है, नित्य प्रवाहमान, आज का विषय है, 
संविधान पर जो नई बस जन्म ले रही है, धर्मनिरपेक्षता व समाजवाद।
      अगर पहले हम इन दो शब्दों का अर्थ समझे, धर्मनिरपेक्षता 
यानी किसी भी धर्म का विशेष न करते हुए सभी धर्म का समान रूप से आदर करना, जो कि हमारे संविधान का मूल स्वरूप भी है,
हमारे देश में बहुभाषी, बहुआयामी प्रकृति के नागरिक निवास करते हैं, उन सभी को समान रूप से पोषण करना, दूसरा शब्द है समाजवाद, समाजवाद में हम समाजवाद शब्द का अर्थ समझे 
सम +आज= समाज , यानी इसमें भी सभी की समानता की बात कही गई है, किसी भी देश के राजनीतिक नेतृत्व का  यह दायित्व है, अगर संविधान को बल प्रदान करने के लिये कोई संशोधन अगर किया भी गया है, वह संविधान को और बल अगर प्रदान कर रहा है, तब इसका विरोध क्यों? 
         अब आते हैं, सनातन धर्म की मूल व्याख्या पर, जरा देखें 
वह क्या कहती है? हमारी संस्कृति में एक श्लोक है " सर्वे भवंतु सुखिन: , सर्वे संतु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मां कश्चित दुःख भाग भवेत" अगर इस श्लोक का भी अर्थ हम देखें तो यही परिलक्षित होता है, इसमें सभी के सुखी होने की  कामना की गई है, इस प्रार्थना में भी किसी धर्म या पंथ की बात कहां कही गई है। 
        यह प्रार्थना संपूर्ण विश्व हेतु प्रार्थना है, जब हमारे देश में पहले से ही अन्य समस्याएं इतनी अधिक है उन पर ईमानदारी पूर्वक ध्यान देने की आवश्यकता है। 
     दूसरा उदाहरण, जब हमारे बगीचे में विभिन्न किस्म के फूल हो,
वह तभी शोभायमान  होता है, इसी प्रकार हमारे देश की विविधता ही इसकी एकता है , वह इसमें ही देश का सौंदर्य भी है।
       तृतीय उदाहरण, जब प्रकृति ने हम मनुष्यों में कोई भेदभाव नहीं किया, तब हम किस आधार पर भेदभाव की बात करते हैं, 
उसने सभी को समान रूप से पोषण किया है व करती है।
     अब बात करते हैं आज विश्व ऐसे दौर में है, जब हम सभी एक दूसरे पर आश्रित है, व्यापार- व्यवसाय, तकनीक वह अन्य क्षेत्रों में भी विश्व एक दूसरे का सहयोग कर रहा है। 
     ऐसे समय में हम भारत को अग्रणी करने के बजाय इन छोटे-छोटे वैचारिक मतभेदों के सहारे कैसे अग्रणी बनायेंगे।
    विविधता तो ईश्वर ने हमारे शरीर के भीतरी उत्पन्न कर रखी है, 
हमारे हाथ का मिशन किसी दूसरे व्यक्ति से मेल नहीं खाता, जब प्रकृति नहीं इतनी विविधता प्रदान कर रखी है, तो हम क्यों इसका विरोध करते हैं। 
       ईश्वर की दी हुई सृष्टि में यह विचार  ही असंगत है, विविधता होते हुए भी सभी को समान महत्व प्रदान करना चाहिये, दरअसल यह चेतना जागृत होना ही मानवीय धर्म के अनुकूल है, पंथ अनेक हो सकते हैं, धर्म तो एक ही हो सकता है मानवीय धर्म, क्योंकि जितने भी पंथ बने वह सब मानवीय विकास हेतु ही बने हैं।
     हमारे देश का संविधान विविधता में एकता को बल प्रदान करता है, यहां प्रांत, भाषा, बोलियां इनकी विविधता , परंतु एक राष्ट्र के रूप में इनका गठन संविधान के तहत किया गया है, अब बचकानी बातों से हम संविधान को कमजोर ना करें। 
     केवल मानवीय मूल्य व गरिमा ही सर्वोपरि होने चाहिये, इस राष्ट्र में अभी अगर कलमकार चुप रहेंगे, तो फिर हमारे हाथ में कलम का मतलब ही क्या है? 
       हमारा संविधान मानवीय मूल्यों की रक्षा करता है, भूत शोध के बाद उसे गड़ा गया है, और अगर बाद में संशोधन पर कोई अच्छी बात उसमें जोड़ी गई है, तो केवल राजनीतिक आधार पर उसका विरोध  उचित नहीं है।
      हमारे राष्ट्र की वैश्विक मंच पर अभी उपस्थित दमदार है, ऐसी विवादित बातों को बल नहीं दिया जाना चाहिये।

विशेष:-   ऐसी बातों की बजाय मानवीय मूल्यों, आर्थिक सुधार 
            वह सामाजिक प्रतिबद्धता पर बात करें तो उचित होगा,
           हमें देश के भूतपूर्व राष्ट्रपति " श्री अब्दुल कलाम आजाद"
            जैसी शख्सियतों की जरूरत है, जिन्होंने राष्ट्रपति पद की               गरिमा का तो निर्वहन किया ही, राष्ट्रपति पद से हटने के 
             बाद स्कूलों में जाकर  राष्ट्र के प्रति समर्पण का जो भाव
             उन्होंने जागृत किया, वैसे विचार का समर्थन किया                     जाना चाहिये 

आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत, 
जय हिंद


प्रिय पाठक गण,
     सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, मेरी यह प्रवाह यात्रा आप सभी को कैसी लग रही है? कृपया अवश्य बताएं? इससे मेरा भी उत्साहवर्धन होगा।
        हम सभी उस परमपिता की ही संतान है, हम जब तक अपने मानस को परिवर्तित नहीं करते, तब तक आंतरिक शांति कभी भी प्राप्त नहीं कर सकते। 
       देवताओं को भी दुर्लभ ऐसा मनुष्य शरीर हम सभी को प्राप्त हुआ, हम किस प्रकार इसका उपयोग करते हैं, वहां हमारी मानसिकता पर ही सबसे अधिक निर्भर है। 
      संस्कृत में एक सूत्र वाक्य है "यत पिंडे तत् ब्रह्मांडे" , इसका
जो मूल अर्थ है, वह तो यही है, हमारा पिंड जो है, यानी यह शरीर 
ब्रह्मांड का ही लघु रूप है।
     जो हमारे शरीर में भीतर घट रहा है, मन में, विचार में, दरअसल वही बाहर भी घटेगा ही, सबके बीच में रहते हुए भी
अगर हम अपनी मूल चेतना को, विचार को दृढ़तापूर्वक, साहस से 
वह उसकी कृपा को मानकर धारण कर सके, तभी जीवन में बदलाव की प्रक्रिया की शुरुआत होगी।
    अंतर को बदले बिना हम कितने ही उपवास, तीर्थ, नाम-जप,
बाहृय आडंबर कितना भी कर ले, हम स्वयं इस बात को भली-भांति  जानते हैं, कि हम कहां पर सही हैं? कहां पर गलती कर रहे हैं? पर निजी स्वार्थवश  हम हमारी गलतियों पर पर्दा डाल देते हैं।
       हमारे साथ कई जन्मों के कर्म  चले आ रहे हैं, अब इस जन्म में हम कैसे युक्तिपूर्वक कर्म भोग को भोंगते है, यह विचारणीय है। 
हम सभी उस परम सत्ता के एक छोटे से अंश है। करने वाला व
करवाने वाला केवल एक वही है, उसके आगे नित्य नतमस्तक रहे, उसकी कृपा का अनुभव करें। 
        कोई बोध अगर भीतर गहरे कहीं जागृत हो रहा है, तो उसकी अनन्य कृपा समझे, मानो वह हमें दिशा -निर्देश दे रहा है,
इस मानव जीवन को जो अति बहुमूल्य है, हम संवारते जाये,
निखारते जाये, प्रयत्न करते रहें, वह परमात्मा अवश्य कृपा सागर है, उसके लिए समस्त सृष्टि एक समान है। 
    कण -कण में , हर क्षण में उसकी व्यापकता का दर्शन करें, 
अपनी अंतर्दृष्टि को पूर्ण जागृत करें, उसे पिता परमेश्वर का धन्यवाद करें, इतना श्रेष्ठ मानव जीवन हमें प्राप्त हुआ, उसकी कृपा को भीतर गहरे उतार ले, फिर देखें, कैसे सहज ही सब होने लगता है, पूर्ण आश्वस्त रहे, वह कभी कुछ विपरीत घटने ही नहीं देता, दृढ़ आस्थावान  रहे, अपने कर्म पर सजग दृष्टि रखें, कोशिश करें, जितना हमसे सध सके, उतना अपने जीवन को साध ले।
      जितना हम अंतर में भीतर आयेंगे, वह अंतर चक्षु हमें दिव्यता प्रदान करेंगे, जो सामान्य जीवन में रहते हुए भी निरंतर अभ्यास द्वारा हम पा सकते है् ।
     अपनी दुर्बलताओं को छुपाये नहीं, उन्हें भी स्वीकार कर ले, अपने भीतर की अच्छाई को भी स्वीकार करें, उसकी कृपा को 
थाम ले, सुमिरन करते रहे, अनन्य भाव से, फिर आपका जीवन 
धीरे-धीरे रूपांतरित होने लगेगा, भीतर से जब रूपांतरण की शुरुआत हो जाती है, तब सहज ही सब कुछ सही दिशा की ओर चलने लगता है। 
विशेष:- भीतर से बदलाव अत्यंत आवश्यक है, हम हमारे स्वयं के कर्म पर दृष्टि अवश्य रखें, परमात्मा का नित्य चिंतन अवश्य करें,
उसका चिंतन हमें कई प्रकार के झंझावातों से बचाता है, नियम पूर्वक उसकी शरणागति में रहे, परम अहो भाव से नित्य उसका वंदन करते रहे।
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद।
प्रिय पाठक गण, 
      सादर नमन, 
अभी वर्षा ऋतु का सुहाना मौसम चल रहा है, यह मौसम मन मे
नई उमंग वह ताजगी प्रदान करता है, वर्षा की रिमझिम फुहारे मानो मन को झंकृत करती है, मन आल्हादित हो उठता है।
        प्रातः काल अगर हम प्रतिदिन उठते हैं, अगर 4:00 से 6:00 के मध्य हम उठ जाते हैं, तो शाम तक या रात्रि तक
ऊर्जा बनी रहती है।
      प्रकृति का गूढ़ रहस्य यही है, उससे आप कितनी सुंदरता पूर्वक तादात्म्य  स्थापित कर पा रहे हैं, जितना आप सामंजस्य स्थापित करेंगे, जीवन आनंदमय होने लगेगा।
    प्रातः काल उठकर सैर करे, सूर्योदय देखें, पक्षियों का मधुर
कलरव सुने, यह सभी प्रकृति से अनुकूलतम सामंजस्य बिठाना ही
तो है।
    हमारी प्राचीन संस्कृति  में  प्रकृति के महत्व को ठीक से समझा गया है, तभी तो सारे तीर्थ स्थान, नदियों, पहाड़ों पर स्थित है, जहां प्रकृति अपने सुरम्य स्वरूप में विराजित होती है।
     प्रकृति का स्पर्श सबसे अनूठा स्पर्श है, शांति चित मन से जब
हम प्रकृति की छटा को निहारते हैं, अपने भीतर उस सौंदर्य को गहरे उतारे, उसका स्पर्श अनुभव करें, वह सदा ही आपके तन मन को झंकृत ही करेगा।
   जब हम देह से थक जाते हैं, विश्राम के लिये प्रकृति की मनोरम शरण को ग्रहण करते हैं, वह भी अपनी विशाल बांहें फैलाये मानो हमारा  स्वागत करती है।
    प्रकृति की सुंदरता व प्राकृतिक सौंदर्य, जिसमें कृत्रिमता का
समावेश न हो, हमें सहज ही आकर्षित करती है। प्राकृतिक सौंदर्य के पास हर दिन कुछ समय अवश्य बिताये, उसके सानिध्य में हमें
आंतरिक ऊर्जा प्राप्त होती है, नित्य, नियम पूर्वक प्रातःकाल उठे,
सैर पर जाने व प्रकृति के नियमित सानिध्य में अवश्य ही रहे।
     यह हमारे तन व मन दोनो को ही ऊर्जा प्रदान करता है। परम
पिता की बनाई यह सृष्टि परम अद्भुत है, उसे परमात्मा की बनाई सृष्टि का आनंद अनुभव करें, ताजगी से भरपूर रहें ।
    नित्य कोई मधुर संगीत अवश्य सुने, वह मधुर संगीत व दिव्यता हमें प्राप्त होती जायेगी। जितना हम संगीत व रागों के सानिध्य में रहेंगे, उतना ही जीवन का आनंद बढ़ता ही जायेगा। जीवन को
रसमय , आनंदमय बनाये, कृपामय बनाये, पक्षियों का मधुर 
कलरव हमें जीवन को आनंद पूर्वक जीने का उत्साह प्रदान करता है।
     संस्कृत में भी कई स्रोत है ऐसे हैं, जिनका ध्यान व लय पूर्वक  पाठ करने पर जो तरंगे बनती है, वह हमें अंदर तक झंकृत करती है। आनंदपूर्वक जीवन स्वयं भी जिये , औरों को भी प्रेरणा दें, व  नित्य ऊर्जावान बने रहकर जीवन का आनंद ले।
    प्रसन्नचित्त रहने का अभ्यास करें, अंतरात्मा से प्रभु का धन्यवाद करें, इतने सुंदर व शानदार जीवन के लिये अहो भाव से धन्यवाद करें।
      हम जितना प्रकृति से सामंजस्य स्थापित करेंगे, उतना ही जीवन में आनंद बढ़ने लगेगा, आप सभी का मंगल हो, शुभ हो,
यही प्रार्थना।
     उसे प्रभु का नित्य निरंतर धन्यवाद करते रहें, स्वस्थ रहें, मस्त रहे। 
विशेष:- प्रकृति के नजदीक रहने का अभ्यास करें, सुबह जल्दी उठे, सैर करें, नित्य प्रभु के मंगलमय स्वरूप का हृदय में ध्यान करें, प्रकृति से सामंजस्य  बिठाने का प्रयास करें।
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय हिंद 
जय भारत।


प्रिय पाठक गण,
        सादर वंदन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
     प्रवाह की इस अनूठी यात्रा में आप सभी का स्वागत है। 
जीवन में हर दिन बसंत ऋतु  है, सदा खुश मिजाज  रहे , चीज जो घट रही है, उसके नियंता आप है ही नहीं, आप यह स्वीकार कर ले, हम तो निमित्त हैं, फिर देखिये, आपकी जिंदगी का एक नया अध्याय शुरू हो जायेगा, जीवन का जुझारूपन ही जीवन की असली ताकत है, नित्य प्रति प्रार्थना करें, विनय करें, हे परमात्मा 
आपकी बड़ी कृपा है। जैसे-जैसे हमारे दिन बीते, उसे पर हमारी आस्था और प्रगाढ़ होती जाए, सभी घटनाएं जो भी घट रही है या
घटेगी, वह सब पहले से ही तय है, हम सभी केवल निमित्त मात्र है, उसे परमपिता परमेश्वर के रचाये हुए किरदार है, बस हमें अपनी भूमिका का सही ढंग से निर्वाह करते जाना है, प्रकृति के इस अनूठेपन को जिसने भी सही तरीके से समझ लिया, उसने जीवन के हर पड़ाव को पूर्ण निश्चितता से  करना मानो सीख लिया है।
       नित्य ,नूतन हर दिन एक नई ऊर्जा व चेतना के साथ जीवन का प्रारंभ करिये, समझ लीजिये, आज का दिन ही है, उसे भरपूर ऊर्जा के साथ जीने की कोशिश करें, उसे ऊर्जा के स्पंदन को भीतर कहीं गहरे महसूस करें, हम सभी उसी परम चेतना के ही अंश है, मगर भौतिकवाद के अतिरिक्त भार ने मानो हमारे जीवन ऊर्जा को हमसे छीन लिया है, एक मासूम बच्चे की खिलखिलाहट  देखिये, पंछी का आकाश में मुक्त विचरण देखिये, नित्य सूर्योदय का दर्शन कीजिये, सूर्य भी तो रोज अपने पूर्ण सौंदर्य के साथ आता  है, प्रकृति में पक्षी मधुर कलरव करते हैं,  एक सामान्य सी गिलहरी देखिये, वह किस प्रकार अपनी पूर्ण ऊर्जा से इधर से उधर चहल कदमी करती है, पेड़ ,पौधे, वृक्ष यह सभी परमात्मा की जीवन ऊर्जा  से परिपूर्ण है।
       इसी प्रकार हम भी नित्य फूलों की तरह महके, उसकी खुशबू वह सौंदर्य को आत्मसात करें, तितलियों का उड़ना, स्वर -लहरियों का गुनगुनाना , मधुर गीतों को गाइये, यह जीवन भी एक मधुर सा गीत ही है, इसे गुनगुनाइये ।
   प्रतिदिन प्रार्थना करें, उसे परमेश्वर को धन्यवाद कहें, जिसने हमें यह सुंदर जीवन प्रदान किया है, इसका स्वयं भी आनंद उठायें व
औरों को भी इसके लिए प्रेरणा प्रदान करें।
     अंतरात्मा की आवाज सुने, उसे प्रभु की शरणागति में आये,
उसने आपके लिए जो विधान रच रखा है, होगा तो वही, बगैर चिंता किये अपने निजी कर्तव्य को पूरा करते रहें , अपनी भूमिका को समझें वह अपनी कदमताल जारी रखें,  नित्य नूतन, नित्य कृपा को जीवन में महसूस करें। 
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जयभारत 
जय हिंद

प्रिय पाठक गण,
       सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
     हम आज प्रवाह में बात करेंगे ईश्वरीय कृपा पर,  उसकी कृपा बरसती है, अन्य शरणागत भाव से जब भी हम उसे पुकारते हैं, 
वह आज भी तत्क्षण उपस्थित होता है, जब हम पूर्ण भाव से उस
परमात्मा का चिन्तन करते हैं, तो वह भी हमारा चिंतन करता है, 
उसकी मौज में सदा रहे, संसार से अधिक आशा न करें, जो भी
संसार से प्राप्त हो रहा है, वह चाहे मान -सम्मान हो , चाहे वह अपमान हो, सभी को सम भाव से गृहण कर ले, शायद परमात्मा यही चाहता है, जब और कोई मार्ग नहीं सूझे, तब अनन्य शरणागति ही एकमात्र उत्तम उपाय है।
        उसकी कृपा को नित्य, निरंतर महसूस करें, वह सर्वदा है, सभी जगह है, सदा ही साथ में है। उसकी शरणागति से जीवन में 
जो प्राप्ति होती है, वह शब्दों में बयां नहीं की जा सकती है, परम अहो भाव से उसका चिंतन  व स्मरण करते रहे, आपके हित में जो भी होगा, वही वे करेंगे, परम अनन्य भाव से उनका मंगल चिंतन करें, अपने जो कर्तव्य-कर्म है, उन्हें पूर्ण सही ढंग से करने की कोशिश करें, उसकी कृपा व शरणागति को हमेशा याद रखें,
उसका चिंतन कभी भी विस्मृत हो।
       वह एक द्वार बंद करता है, तो दूसरा द्वार अवश्य खोलता है,
इस संसार -सागर को मात्र उसकी कृपा से ही  पार किया जा सकता है, अतः कोई भी शंका मन में न रखते हुए उसकी महिमा
का गुणगान करते हुवे परम अहो भाव से स्मरण करते हुए बगैर किसी विचलन के अपने नित्य कर्म को करते रहें।
     जो भी आपके हित में होगा, होगा बस वही, अपने माता-पिता, 
गुरुजनों व वरिष्टो का सम्मान करते हुए वह बराबरी वालों को छोटों से स्नेहपूर्ण व्यवहार करते रहे, फिर जो भी होगा, वह केवल मंगल ही होगा। 
     उसकी अनन्य कृपा को जीवन में धारण करें, उसकी कृपा को भी हम तभी धारण कर सकते हैं, जब वह चाहता है, अन्यथा हमारा भाव भी उधर नहीं होगा। 
     उसने सब कुछ दिया, परम पिता का, इस सृष्टि का धन्यवाद
करें, हम सुबह स्वस्थ उठ रहे हैं, क्या यह उसकी कम कृपा है, 
नित्य प्रति  मंगल प्रार्थना प्रभु से अवश्य करें, सब अच्छा ही होगा, 
केवल मंगल ही होगा। 
 विशेष:- आपके जो भी मूल कर्तव्य  हैं, उनके परिपालन से ही आप उन तक पहुंच सकते हैं, उसका नित्य चिंतन, नित्य मनन करते हुए अपने कर्तव्यों को भी निभाते जाये, उनसे अपना मुख न मोड़ें, शेष भार उस परम पिता पर छोड़ दे, जो भी आपके लिये अनुकूल होगा, केवल वही होगा। 
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद।

प्रिय पाठक गण,
      सादर नमन, 
आज प्रवाह में हम बात करेंगे, समय व सबंध पर, दोनों ही हमारे जीवन में दो ऐसे स्तंभ है, जिन पर समस्त जीवन की इमारत खड़ी होती है, और इन दोनों का संतुलन साथ लेना ही जीवन की 
सफलता का मूल मंत्र है।
    हमें जीवन में समय का सही सदुपयोग करना आता है, तो हमारे सभी कार्य सुसंगठित हो जाते हैं, समय को यूं ही व्यर्थ करने वाला व्यक्ति ना तो संबंध निभा है, और नहीं स्वयं के जीवन को 
व्यवस्थित कर पाता है, जैसे-जैसे जीवन गति पकड़ता है, हमारी जिम्मेदारियां बढ़ती जाती है, ऐसे में समय का एक-एक क्षण बहुमूल्य हो जाता है, और तब हमारे संबंधों की परीक्षा भी 
आरंभ होती है, की क्या हम समय रहते अपने संबंधों को उचित
स्थान दे पा रहे या नहीं। हमें यह समझना होगा, की संबंध निभाने के लिए मात्र भौतिक उपस्थिति ही पर्याप्त नहीं होती, समय की गुणवत्ता, उसमें डूब कर दिया गया भाव , स्नेह व सहभागिता भी उसमें आवश्यक है। एक और यदि हम समय के पाबंद है, पर संबंधों में रुक्षता है, तो वह भी व्यर्थ है। और यदि संबंधों में हम 
भावनात्मक रूप से जुड़े हैं, पर समय का नियोजन नहीं कर पाते, 
तब भी जीवन में अव्यवस्था जन्म लेती है, अपने दैनिक जीवन में 
हमें यह चिंतन करना चाहिये, क्या हम अपने निकटतम संबंधों को यथोचित समय दे पा रहे हैं? क्या हमारी दिनचर्या में कुछ क्षण ऐसे हैं, जो केवल आत्मीय संवाद, आत्मीय सानिध्य के लिये आरक्षित है? यदि नहीं तो वह संबंध धीरे-धीरे शुष्क होते जायेंगे, समय के इस तीव्र प्रवाह में संबंधों को जीवित रखने के लिये उनकी नियमित देखभाल आवश्यक है, संबंधों में संवाद, संवेदना और 
सहभागिता आवश्यक है। जो व्यक्ति समय का विवेक पूर्वक उपयोग करते हैं, और अपने प्रियजनों को उसका हिस्सा बनाते हैं,
वे न केवल व्यवस्थित जीवन जीते हैं, बल्कि आत्मिक रूप से भी संपन्न होते हैं।
विशेष:- समय के साथ-साथ संबंधों की मर्यादा रखें, क्योंकि जीवन में अगर समय चला जाये तो अवसर खो जाते हैं, और यदि संबंध टूट जाए तो भावनाओं का मूल्य समाप्त हो जाता है, दोनों की ही 
अपनी महत्ता है, कहां क्या आवश्यक है, विचार पूर्वक देखें।
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद।