प्रिय पाठक गण,
        सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
   आज प्रवाह में हम संवाद करेंगे, अविनाशी सत्ता पर, यानी जिसका कभी भी विनाश नहीं होता है।
      प्रिय बंधुओ, उस एक ही परम सत्ता के हम सभी अंश हैं, 
व उसकी ही झलक हम सब में है, वह अपने विभिन्न रुपों में
हम सभी में विराजमान है, यहां तक की जड़ चेतन यह सारा ब्रह्मांड उसकीअविनाशी सत्ता का ही परिचय देता है, व्यक्तित्व आते हैं, चले जाते हैं, प्रकृति उनको जो भी कार्य सौपती है, वह अपनी संपूर्ण ऊर्जा से उसका निर्वाह करते जाते हैं। 
       यह पृथ्वी ऐसे महापुरुषों व व्यक्तित्व को समय-समय पर जन्म देती है, ऐसी दिव्य विभूतियां इस देश में सदा से विद्यमान रही है, अभी भी विद्यमान है, व भविष्य में भी ऐसी दिव्य विभूतियों का जन्म इस धरा पर होता रहेगा। 
     भारत भूमि, वह भूमि है, जहां मनुष्य अपने जन्म से ही उसका स्पर्श पा लेता है, यहां की धरा में ,माटी में कुछ ऐसा है, जो विलक्षण है, जो यहां की माटी में है वह कही और नहीं है।
     यह दिव्य चेतना को जागृत करने वाली भारत भूमि है, इसकी दिव्यता को हम तभी महसूस कर पायेंगे, जब हम इस माटी से गहरे जुड़ेंगे।
      हम सभी जन्म मरण के चक्र से गुजरते हैं, मगर जन्म व मरण के बीच का जो समय है, वह अत्यंत अनमोल है, आप उस समय- चक्र को किस प्रकार व्यतीत करते हैं।
    उस अविनाशी परमात्मा की कृपा को कितना अपने जीवन में अनुभूत कर पाते हैं, उतना ही जीवन आपका आंतरिक शांति से
भर उठेगा, जब तक हम अपने जीवन को करते हुए कर्तव्य- कर्म जो भी हमारा है, उस पथ को स्वीकार कर उस पथ पर निर्विकार हृदय से हम कार्य करते हैं, तो बाकी सारा कार्य अविनाशी सत्ता ही कर रही है, जो हमें दृश्य रूप में तो नहीं दिखती, मगर अदृश्य में वही सारा संचालित कर रही है।
       जीवन का जो आनंद है, वह अपने कर्तव्यों को पूर्ण श्रद्धापूर्वक करने में ही निहित है, जब हम पूर्ण समर्पण से अपने कर्तव्य को निभाते हैं, तो शेष कार्य वह परम सत्ता स्वयं ही पूर्ण कर देती है।
       हम सभी इस सत्ता के छोटे से अंश है, वह परम सत्ता सभी को समान ऊर्जा प्रदान करती है, कोई भेद वह नहीं करती, दृष्टि भेद तो हम करते हैं।
     वह अविनाशी इस प्रकार से है, जन्म और मृत्यु जो हो रही है, 
वह हमारे इस देह की होती है, इसके अंदर जो चेतन सत्ता है, वह कभी भी नष्ट नहीं होती, वह केवल रूपांतरित होती है। 
     हमारा जो शरीर है, वह मृत ही है, अगर उसमें ईश्वर की दी हुई ऊर्जा नहीं हो, जब इस देह से वह ऊर्जा प्रयाण कर जाती है, तो यह देह भी किसी कार्य की नहीं होती, यह शरीर उस ऊर्जा के बिना निष्प्राण हो जाता है।
    फिर भी चेतन सत्ता तो सूक्ष्म है, व्यक्ति के देह त्यागने के बाद भी जो सूक्ष्म ऊर्जा कार्य कर रही है, वह  है उसकी मूल ऊर्जा, जो वह अपने जीवन चक्र में जीवन को जीते हुए बनाकर गया है। 
      एक अच्छे व्यक्ति की ऊर्जा उसकी मृत्यु उपरांत भी कार्य करती है, हम किसी सद्गुणी   व्यक्तित्व  के अगर संपर्क में रहे हैं  , तो उनकी मृत्यु उपरांत भी हमें वह अपनी ऊर्जा शक्ति का बोध कराते हैं।
     यही उस अविनाशी की परम सत्ता का सत्य है, जो तीनों कालों में सत्य हैं।
विशेष:- आप चाहे ना चाहे, माने या न माने, वह अविनाशी सत्ता ही इस पूरे ब्रह्मांड  का संचालन कर रही है। उसकी कृपा दृष्टि से ही सब संभव होता है, अन्य कोई मार्ग है ही नहीं।
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद


प्रिय पाठक गण,
     सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
     प्रवाह की इस मंगलमय यात्रा में आप सभी का स्वागत।
    आइये चले आज के सफर पर,
त्रिशक्ति 
तीन देव:- ब्रह्मा, विष्णु,महेश।
त्रिशक्ति:- सरस्वती ,लक्ष्मी, गणेश। 
तीन गुण:- सत्व,रज, तम ।
तीन आयाम:- बचपन, युवावस्था, वृद्धावस्था।
तीन प्रबंध:- स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार।
तीन कार्य:- स्व, परिवार, समाज।
तीन नेत्र:- दोनों नेत्र व तीसरा आज्ञा चक्र का                नेत्र, शिव नेत्र। 
तीन काल:- भूत, वर्तमान, भविष्य। 
तीन संध्या:- सुबह, दोपहर, शाम।
तीन बहुमूल्य रत्न:- समय, धन, विवेक।
तीन दोष:- वात, पित्त, कफ।
राम शब्द का विस्तृत विश्लेषण 
र +अ+म
रवि+ अग्नि + मयंक 
इस प्रकार राम शब्द में भी तीन शक्तियों का समावेश है।
सूर्य की, अग्नि की, मयंक यानी चंद्रमा की, 
यानी जब हम राम-राम करते हैं, तब शक्तियों का दो बार सुमिरणअपने आप हो जाता है।
इसी क्रम में मेरे द्वारा लेखन में pravah. Com व  इंदौर समाचार पत्र में पेज नंबर 13 पर दर्पण शीर्षक से व अब यूट्यूब पर भी 
"आप और हम" इस नाम से, इस प्रकार एक
त्रिस्तरीय अभियान मैंने आपके समक्ष रखा है, कोशिश तो मेरी संपूर्ण है, मैंने मेरी और से कोई भी कसर नहीं छोड़ी है, सम सामयिक व
विविध विषय, जो जन सामान्य से जुड़े हुए है,
वर्तमान में उनका क्या महत्व है, हम सभी एक ऐसी व्यवस्था के भीतर हैं, जहां हमें सृजन भी करना है, सृजन करते वक्त कुछ पुराना हटाना भी पड़ता है, जो नया समाज हित में हो, वह 
लाना व वह जो आज के समय में अनुपयोगी हो, वह धीरे-धीरे हटाना, यह दोनों ही अपनी अपनी जगह महत्वपूर्ण है, इस चेतना को जागृत करना, मेरा मुख्य उद्देश्य यही है,
हम सभी का जन्म कहां होता है, यह हमारे हाथ में नहीं, मृत्यु कहां होगी, यह भी हमें पता नहीं, इन दोनों के बीच का जो समय है, वही आपके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय है, 
इस समय काल में आप किस प्रकार से अपना कार्य करते हैं, इस प्रकार आप पाएंगे कि यहां भी तीन चीज एक साथ जुड़ी है, जन्म , वर्तमान समय काल व अंतिम पड़ाव मृत्यु,
इन सभी का हम किस प्रकार अपने जीवन में समावेश करते हैं, इसमें दो बातें हमारे हाथ नहीं, केवल जन्म मृत्यु के बीच का जो समय
 है, वह हमारे हाथ है। 
हम किस प्रकार उसका संयोजन करते हैं, 
यह हमारे विवेक पर निर्भर है, जितना बेहतर हमारा संयोजन होगा, उतने ही बेहतर परिणाम हमें प्राप्त होंगे।
इस प्रकार से अगर हम देखें तो हम सभी का जीवन तीन आयामों से गुजरता है, बचपन, 
युवावस्था, वृद्धावस्था। 
बाल्यकाल में हम जिन चीजों को सीखते हैं,
युवावस्था में उन्ही पर हम अमल करते हैं वृद्धावस्था में हम इसके परिणाम पाते हैं।
निश्चित ही हम सभी को इन तीन दौर से गुजरना पड़ता है, जो सावधानीपूर्वक अपने जीवन के इन तीनों सफर को पूरा करते हैं, 
वह अपने  इसी जीवन काल में एक नया अध्याय लिखकर चले जाते हैं। 
इस प्रकार हमारे जीवन में जो ऊपर मैंने बातें लिखी, वह कुछ शास्त्रों से, कुछ निजी अनुभव से, कुछ ईश्वरीय कृपा से, इस प्रकार यहां भी तीन का सम्मिश्रण है। 
 अपनी बात इन तीन चीजों से पूर्ण करता हूं ,
सत्यम, शिवम, सुंदरम।
सत्य ही शिव का स्वरूप है, और वही सुंदर है।
यानि आंतरिक आत्मबोध सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।
अब मैं तीन नारों से अपनी बात को पूर्ण करता हूं।
जय हिंद, 
जय भारत,
 वंदे मातरम।
विशेष:- मैंने अपनी संपूर्ण कोशिश की है व निरंतर प्रयासरत रहूंगा, यह मेरे द्वारा आप सभी लोगों से संवाद है, और ईश्वर इसमें साक्षी है, इस प्रकार से यहां  भी तीन का समावेश है, आप, हम, ईश्वर।
क्योंकि उन्ही की कृपा से यह सब लिख पा 
 रहा हूं।
आपका अपना 
सुनील शर्मा।
प्रिय पाठक गण,
     सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
   आशा है आप सभी को मेरी इस यात्रा का
आनंद आ रहा होगा, समसामयिक व सामाजिक मेरी कलम निरंतर चल रही है, 
जो भी सत्य है, उसे उसी रूप में प्रस्तुतकरने का मेरा प्रयास होता है। किसी प्रकार का समझौता किये, जो आंतरिक रूप से महसूस कर पाता हूं, वही कहना एक कलमकार का मुख्य कर्तव्य है।
        स्थानीय स्तर पर जब नेतृत्व करना होता है, तब सबसे अधिक जो समस्या एक जन नेता के सामने उपस्थित होती है। वह, जनता की अत्यधिक अपेक्षाएं, इसका मेरे विचार से
सबसे बेहतर तरीका तो यही है, की संवाद के लिये अलग-अलग क्षेत्र में कार्यकर्ताओं को 
नियुक्त किया जाये, जो संवाद करने में सक्षम हो, क्योंकि संवाद से ही हम सर्वप्रथम किसी व्यक्ति से रूबरू होते हैं, समाज में सभी प्रकार के लोगों से मिलना होता है, कम समय में हम किस प्रकार सभी से बेहतर संवाद करें, समाज में हम किस प्रकार कार्य कर सकते हैं? लोगों
की मूलभूत समस्याएं क्या है?  उन पर किस प्रकार हम विचार कर सकते हैं? 
          एक लेखक के  बतौर मैंने यह पाया है, जनता और नेतृत्व के बीच में सबसे बड़ी जो समस्या है, वह  है संवाद की। उसके बाद जब भी कोई सामान्य कार्य कर्ता गण चाहे वह किसी भी दल के हो, उनका सीधा सामना जनता से होता है, और अगर समस्याओं का निराकरण नहीं हो पाता है, तो सबसे प्रखर विरोध सर्वप्रथम कार्यकर्ता को ही झेलना होता है, सबसे तीखी प्रतिक्रिया जनता की होती है, उनकी प्रतिक्रिया इतनी तीखी क्यों है? 
        अगर वह सही है, तो संतुलित संवाद के साथ उसे समझना चाहिये, एक टीम संयोजन इसज्ञप्रकार होना चाहिये, जहां पर हम खुले मन से चर्चा कर सके, जो भी कार्य हम कर रहे हैं, उसमें अगर खुला संवाद नहीं है, तो हम जनता के बीच जाकर किस प्रकार कार्य करेंगे।
          जनता से जुड़ी समस्याएं जो भी है, 
उसका निराकरण किस प्रकार से होगा, वह एक टीम संयोजन के रूप में ही हो सकता है, 
समस्त कार्यकर्ताओं के पास संबंधित विभाग से जुड़ी जानकारी भी होना चाहिये, साथ ही जनता की और से कोई शिकायत अगर आती है, तो नेतृत्व को चाहिए कि उन शिकायतों की अवहेलना न करें, नेतृत्व कर्ता को सभी से
समान रूप से पेश आना चाहिये।
         जब नेतृत्व करने के लिए हम समाज में उतरते हैं, तो सर्वप्रथम तो हमें सभी को सुनना ही होता है, उनसे संवाद करना पड़ता है।
     संवाद करने पर हमें समझ में आता है, किस प्रकार से, कहां पर से क्या व्यवधान उत्पन्न हो रहा है। एक बेहतर कार्य शैली को विकसित करना, जिसमें कम से कम लोग  नाराज हो, सबको सुनना, खासतौर से जो भी
कार्यकर्ता गण है, वे आपसे क्या कह रहे हैं? 
यह सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है, क्योंकि अधिकतम जनता के बीच वहीं रहते हैं, उन्हें पता होता है, समस्याएं क्या है?
         एक नेतृत्व कर्ता को सभी कार्यकर्ताओं से सार्थक संवाद अवश्य करना चाहिये, सकारात्मक भाव से किस प्रकार से जनता के बीच कार्य करें, यह एक नेतृत्वकर्ता का गुण होना चाहिये।
       पूर्ण ईमानदारी से जब कोई भी कार्य किया जाता है, तो उसके बेहतर परिणाम आते ही हैं। 
      जनता वह नेतृत्व इन दोनों के बीच संवाद निरंतर होना चाहिये, तभी जनता की जो भी समस्या है, वह समझी जा सकती है, उसका निदान किया जा सकता है।
      जनता व नेतृत्व इन दोनों के बीच संवाद निरंतर होना चाहिये, तभी जनता की जो भी समस्या है, वह समझी जा सकती है, उसका निदान किया जा सकता है। 
       जनता की अपेक्षाएं निश्चित ही नेतृत्व से होती है, साथी जनता से विनम्र निवेदन यह है,
कोई भी जन नेता आपके लिये ही मैदान में है,
आप जो भी कार्य बताये, कृपया सकारात्मक चर्चा अवश्य करें, किस प्रकार की समस्या है? 
 उसका निदान किस प्रकार हो सकता है? 
इन पहलुओं पर जन नेता व जनता दोनों को 
ही धैर्य पूर्वक चर्चा करना चाहिये, अगर संवाद होगा तो समस्याओं का हल निकाला जा सकेगा।
          आम जनता व जननेता के बीच जो संवाद हो, वह बिल्कुल स्पष्ट व कम शब्दों में होना चाहिये, जिस बात पर भी चर्चा करी जाये, उससे संबंधित ही बात हो, यह भी आवश्यक है। 
       स्थानीय नेतृत्व को मूलभूत समस्या पर पर्याप्त ध्यान देना चाहिये वह बगैर किसी भी 
भेदभाव के सभी की बात सुनना चाहिये, संवाद ठीक तरह से नहीं होने पर गतिरोध उत्पन्न होता है, अत्यधिक प्रशंसा से जन नेता को दूर रहना चाहिये।
          नेतृत्व करना भी एक सुंदर कला है, कहीं अंतर विरोधों के बीच किस प्रकार कार्य करें ,   यही कुशल नेतृत्व का कार्य है।

विशेष:- स्थानीय नेतृत्व करते समय वहां की मूलभूत समस्या जो है, वह सबसे अधिक महत्वपूर्ण होती है, उसके निराकरण हेतु 
किस प्रकार कार्य किया जाये, यह धीरे-धीरे अनुभव से ही प्राप्त होता है।
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद 
वंदेमातरम्।
प्रिय पाठक गण,
     सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
हम सभी जिस समाज को परिवेश में रहते हैं, 
वहां क्या घट रहा है, हम देखते हैं वह जो सत्य आंखों से  नजर आता है, वही हम लेखनी के माध्यम से व्यक्त करते हैं।
          आज के समय में हमें जब कलियुग अपने चरम पर है, व्यक्ति कब किस प्रकार का
आचरण करता है ,या करेगा, हमें ज्ञात ही नहीं, जब संपूर्ण समाज में इस प्रकार की अनेक भ्रांतियां हो , तब तो एक लेखक के रूप में 
सभी रुप से जवाबदारी भी बढ़ती है।
         आज का जो इतना विरोधाभासी समय है, तब हमें राम व कृष्ण दोनों ही व्यक्तित्व के मूल तत्वों को कहां पर कैसे हम अनुसरण करें, यह बोध भी आवश्यक है।
       प्रसंग वश आपको बता दूं, कई बार सभी से बात करते-करते भी कोई विषय मिल जाता है, और से लगता है इस पर लिखना जरूर चाहिये, इसी प्रकार चर्चा में राम और कृष्ण पर चर्चा हुई, इस चर्चा के उपरांत  यह लेख लिखा है।
   मुझे लगा यह तो लेखन के लिए अच्छा विषय है इस पर अवश्य कुछ लिखना चाहिये।
तो पुनः आते आज के विषय पर, अपने घर में हमें राम जी के जीवन को आदर्श बनना चाहिये, लेकिन जब हम घर से बाहर अपना कदम रखते हैं, तब हमें कृष्ण भगवान की ही भांति चतुर व चपल होना होगा , जहां हम घर में भगवान राम की भांति त्यागमय  आचरण का अनुसरण करें, वही हमें समाज में कृष्ण भगवान की भांति चतुर समयानुकूल  रणनीति को अपनाना होगा।
        हमें भगवान कृष्ण के व्यक्तित्व से प्रेरणा लेना होगी, जाने समाज के अधिकतम हित हेतु अन्याय को खत्म करने के लिये हर  वह तरीका अपनाया , जो वे कर सकते थे, उन्होंने छली को छल से , बली को बल से इस प्रकार की नीति को अपनाया, साथी वे सज्जनों से प्रेम पूर्वक, दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों से कड़ाबर्ताव करना चाहिये।
      आदर्श की बात करते समय वर्तमान में समाज में जो घट रहा है, उसे अनदेखा न करें।
हमें वास्तविकता व कृत्रिम सत्यताता का भेद समझना होगा, केवल सतही तौर पर न देखकर तथ्यों को प्रमाणो के आधार पर हमें कार्य करना चाहिये। दूर दृष्टि रखकर किसी भी फैसले को 
करना चाहिये। कोई भी फैसला करते समय हमें फैसले के बाद होने वाले परिणामों पर भी नजर रखना चाहिये, फैसला करते समय हमें सजगता, ईमानदारी, सत्यता व सामंजस्य इन सभी बातों का समावेश करना चाहिये। तभी हम किसी बेहतर परिणाम की उम्मीद कर सकते हैं। 
      वास्तविकता से आंखें फेर लेने से  वास्तविकता खत्म नहीं होती , आप भले उसे कितनी ही सफाई से छिपा ले, सत्य उजागर हो ही जायेगा।
विशेष:-   हमें घर में राम सा, बाहर कृष्ण सा
आचरण रखना होगा, क्योंकि बाहर समाज में 
अनेक प्रकार की विचारधारा के व्यक्ति हमें मिलते हैं, विभिन्न विचारधारा एवं घटकों का संगम होता है, तब हमें कृष्ण भगवान सी चपलता   व विवेक दोनों ही चाहिये। 
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत, 
जय हिंद, 
मातरम।मातरम
प्रिय पाठक गण,
    सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम,
आज कुछ थोड़ा हटकर प्रयास कर रहा हूं, उम्मीद है पहले की तरह इस बार भी आप मुझे सराहेंगे, अगर मैं लेखन कर रहा हूं, तुम मेरा पहला धर्म समाज के प्रति है, क्या होना चाहिये? क्या हो रहा है? इसका तार्किक विश्लेषण करना मेरा प्रथम कर्तव्य है। 
      हम भारतीय दरअसल भावनात्मक होते हैं, भावनात्मक होना कोई बुरी बात नहीं, इससे हमारे इंसान होने का पता लगता हैं, 
मगर हमारी भावना से किस प्रकार खिलवाड़ 
धर्म की आड़ में मूल धर्म पर से ध्यान हटा देना, यह तो  उचित नहीं।
     जैसे धर्म के चार चरण धर्म अर्थ,काम, मोक्ष है। वैसे ही नए संदर्भ में हमें सामाजिकता के चार चरण स्थानीय, प्रादेशिक, देश व विश्व इन चारों चरणों में देखना होगा।
     तो मजे की बात तो यह है के स्थानीय समस्या पर बात करते-करते कब हम प्रदेश ,
देश व विश्व पर चर्चा करने लग जाते हैं, हमें पता ही नहीं चलता।
    अभी स्थानीय स्तर पर महाराजा यशवंतराव अस्पताल में जो घटना घट रही है, 
 विगत कुछ दिनों से उस मात्र राजनीतिक लोगों ने ही इसका विरोध किया, जब व्यवस्था इतनी तार -तार हो चुकी है, तब क्या जिम्मेदार नागरिक होने की नाते हमारा भी कर्तव्य नहीं
बनता कि पूरे मामले में जो भी सच हो सामने आये, इस पूरे प्रकरण में जो भी सत्य हो सामने आना ही चाहिये।
         किस प्रकार स्थानीय, प्रदेश , देश व  विश्व यह चार स्तंभ भी हमारी सामाजिक व्यवस्था के अभिन्न अंग है।
     और इन चारों पर ही पैनी निगाह रखना 
वह क्या आवश्यक सुधार इन चारों व्यवस्था में हो सकते हैं, वह हमें करना ही चाहिये, और इसकी शुरुआत हम सवाल पूछने से कर सकते हैं, यह एक समझदार नागरिक होने के 
नाते हमारा कर्तव्य भी है, और इसकी परिपालना हमें अवश्य करना चाहिये।
विशेष:- अगर हम केवल मूक दर्शक ही बने रहे, तो फिर व्यवस्थाओं कोसने का भी हमारा अधिकार नहीं है, हमें पूर्ण ईमानदारी से इस बात की पैरवी  करना चाहिये , जो भी सच हो वह सामने आये।
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत, 
जय हिंद, 
वंदे मातरम।
प्रिय पाठक गण,
    सादर नमन,
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
मुझे पूर्ण आशा है आप सभी को मेरे विभिन्न विषयों पर लिखे गए लेख जरूर पसंद आ रहे होंगे। 
प्रवाह की इस मंगल में यात्रा में आज मेरा लेख है आंतरिक वह बाह्म समृद्धि पर। 
        मनुष्य शुरू से ही प्रयोग धर्मी रहा है,
वह निरंतर आगे से आगे जो भी खोज होती है, वह उसकी इसी जिज्ञासा का ही परिणाम है, वैज्ञानिक अन्वेषण होते ही रहेंगे, मनुष्य जाति निरंतर नए सोपानों को छूयेगी, मगर इन सब में एक बात जो विचारणीय  है, वह यह है,
हम संपूर्ण विश्व को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं, भौतिक साधनों की तो हमारे यहां कोई कमी नहीं, फिर क्या कारण है, कि मनुष्य इतना अशांत है, निश्चित ही संपूर्ण मनुष्य जाति को एक अवलोकन की जरूरत है, और इस बारे में हमें हमारी संस्कृति से सशक्त कोई और माध्यम मिल ही नहीं सकता, हमारी संस्कृति में सब कुछ बहुत स्पष्ट है, सृष्टि के संपूर्ण पांचों तत्व  पृथ्वी जल,अग्नि,वायु और 
आकाश, वह मनुष्य जिससे जीवित है ,वह  प्राण तत्व, इस प्रकार से मनुष्य का शरीर निर्मित हुआ।
        हमारी आंतरिक समृद्धि हमारे आंतरिक विचारों पर निर्भर है, वह बाह्य भौतिक समृद्धि हमारे जो भी हम व्यवसाय या नौकरी करते हैं, उसे पर पूर्ण रूपेण निर्भर है।
       आज  हम एक समाज के भीतर रहते हैं,
तो जो समाज में घट रहा है, उसे पूर्ण रूप से अनजान भी नहीं रह सकते, मेरे विचार में 
हमारी भारतीय संस्कृति का यह सूत्र वाक्य है, "सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे संतु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मां कश्चित दुख भाग भवेत",
इतनी उदार मना संस्कृति हमारी है, जो विश्व में सबके कल्याण की बात करती है, फिर भारतीय समाज में इतनी अधिक विषम परिस्थितियों क्यों है?
           इसका एकमात्र जवाब यह है, हमारे कथनी व करनी में अंतर, अगर हम जो कह रहे हैं, वह कर नहीं रहे, तो फिर बेहतर परिणाम की उम्मीद हम किस प्रकार कर 
 सकते हैं। इस समाज में रहने के कारण कहीं ना कहीं हम भी इसके लिए उत्तरदायी हैं,
हम भ्रष्टाचार की घटनाओं को शुरुआत से नजरअंदाज करते आ रहे हैं, और वह एक भीषण रूप ले चुकी है, जब रोग भीषण हो जाये, तब एकमात्र उपाय शल्य चिकित्सा बचता है।
       हम हम आगे कैसे समाज में जी रहे हैं,
जहां पर विभिन्न विचारधाराएं हैं, हमें निश्चित ही भौतिकवाद कितना आवश्यक है, इस पर गौर तो करना ही होगा, इसके लिए हमें विभिन्न माध्यमों से लोगों को स्वरोजगार के लिए प्रेरित करना चाहिये, क्योंकि नौकरियों की संख्या इतनी अधिक नहीं, जितनी मात्रा में हमारी जनसंख्या है, मेरे मौलिक विचार में हमें स्वरोजगार की जो परिकल्पना है, वह स्थानीय स्तर पर जो भी रोजगार हो सकते हैं, उन्हें हम बढ़ावा दे, तो इस समस्या का बहुत कुछ समाधान हो सकता है।
       इसके साथ ही हम सभी को इस बात के लिए भी प्रेरित करें यह समाज सभी से मिलकर बना है, तो इसमें जो विकृतियों आयी
 है, उसके लिए थोड़े-थोड़े दोषी तो सभी हैं,
यह हम सभी के लिए आत्म मंथन का समय है, जब हमें एक सिक्के के दोनों ही पहलू आंतरिक व बाहृय समृद्धि पर समान रूप से विचार करना होगा ।
      आंतरिक समृद्धि वह है, जो हमें मानसिक उत्साह प्रदान करती है, जीवन जीने का नित्य उत्साह, उत्सव पूर्वक हम अपने कार्यों को करें, यह दृष्टिकोण में भीतर से समृद्ध करता है। जीवन में भौतिक संपदा भी आवश्यक है, मगर हम जब आंतरिक समृद्धि व बाह्य समृद्धि दोनों का संतुलन सीख जाते हैं, तू जीवन की सही राह को हम समझ लेते हैं,
हम जितनी अच्छी प्रकार इस बात को समझेंगे , उतना ही हमारा स्वयं का जीवन तो सुखद होगा ही, हम औरों को भी इसके लिये प्रेरित कर सकेंगे।
    तो लिए हम आंतरिक व बाह्य दोनों प्रकार की समृद्धि को प्राप्त करें, वह संतुलन द्वारा 
हमारे जीवन की धारा में निरंतर प्रवाहमान रहकर कार्य करें।
समय-समय पर अपनी गतिविधियों का आकलन करें, हम अपने लिये, उसके बाद कुछ समय समाज के लिए आवश्यक निकालें,
वह चाहे अच्छे विचार के रूप में हो, आप धन दे सके, समय दे सके, जिस प्रकार से भी आप सकारात्मक रूप से समाज को सहयोग कर सके, वह अवश्य करें। 
विशेष:- हमारे जीवन को हम सुगम व सरल,
आंतरिक  व बाह्य दोनों प्रकार की समृद्धि से भरपूर बना सकते हैं, यह पूर्णतः हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर है, आप सभी का पुनः धन्यवाद, आपकी और मेरी यह साझा  वैचारिक यात्रा इसी प्रकार चलती रहे।
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद 
हम फिर मिलेंगे, अगले लेख में।
 
प्रिय पाठक गण,
     सादर नमन, 
 आप सभी को मंगल प्रणाम, 
प्रवाह की इस अद्भुत यात्रा में आप सभी का
स्वागत है। 
आज जो संपूर्ण विश्व है, वह कहीं ना कहीं आर्थिक ,सामाजिक वह व्यापारिक तीनों ही प्रकार से एक दूसरे से  जुड़ा है, अत्यधिक स्वार्थ पर आधारित राजनीतिक व्यवस्था अंततः उसी के विनाश का कारण बनती हैं।
         इस समय अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप की बचकाना हरकतों से ऐसा ही प्रतीत होता है। 
       ऐसे समय में भारतीय संस्कृति की यह विशेषता "सर्वे भवंतु सुखिन, सर्वे संतु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मां कश्चित दुख भाग भवेत्" , यह हमारी प्राचीन संस्कृति की मूल अवधारणा है, वह कितनी स्पष्ट है, जो सबके सुखी होने की कल्पना व कामना करती है, वैसे धरातल पर भी उतारती है। 
      ऐसी विराट विचार वाली हमारी मूल संस्कृति है, और यह संस्कृति ही हमारे देश का
प्राणतत्व है, फिर क्या कारण है  कि हमारे देश में हिंदी मराठी भाषा विवाद पर प्रबुद्ध राजनीतिक प्रबुद्ध जनता पत्रकारों का चुप रहना, समझ से परे हैं,
          एक और तो हम संपूर्ण देश को एक करने की बात करते हैं, और दूसरी और इस प्रकार की राष्ट्र के विरुद्ध जो बात है, उसे पर राजनेताओं व पत्रकारों, यहां तक की निर्भीक कवि जो कहे जाते हैं, उन सभी की ख़ामोशी 
उचित नहीं, और दिन थोड़े बहुत लोगों ने इस बात का विरोध किया है, वे प्रशंसा के पात्र हैं, इस देश को बनाने में हमारे क्रांतिकारियों, स्वतंत्रता सेनानियों मैं बहुत महत्वपूर्ण योगदान इसलिये नहीं दिया कि अब राष्ट्र मेंइस प्रकार की बातें हो, एक और तो धारा 370 खत्म करने का समर्थन , पर इतनी महत्वपूर्ण विषय पर राजनीतिक चुप्पी समज्ञ परे है।
       अत्यधिक सत्ता संघर्ष ने क्या हमारी बुद्धिमत्ता को भी नष्ट कर दिया है, निष्पक्ष नजरिये अगर हम देखे तो यह कतई ठीक नहीं, इस राष्ट्र में युवा भी है, हम उन्हें क्या संदेश देने जा रहे हैं? हमें इस प्रश्न का विस्तृत 
समाधान खोजना चाहिये।
      अत्यधिक भौतिकवाद ने हमारी समझ रिश्तो को भी भीतर से खोखला कर दिया है।
      वर्तमान समय में हमारी पारंपरिक जड़ों को मजबूती प्रदान करना व वह नया जो भी है, उसे भी ग्रहण करना, दोनों ही जरूरी है। 
      यह परिपक्व समाज की जवाबदारी भी है, इन चीजों को अनदेखा न करें, वरना इस प्रकार की बातें देश में बढ़ने लगेगी, दिशाहीन  देश  व समाज कभी प्रगति नहीं कर सकते,
आज विश्व जिस पीड़ा से गुजर रहा है, वह उसी की बनाई हुई है। 
    धर्म हमें भयहीन करता है, निडरता प्रदान करता है, अगर हमें धर्म निडर नहीं बनाता, तो फिर कहीं हमारे  आचरण में त्रुटि हुई है। 
    धर्म के जागरण से तो भीतर एक आनंद और साहस की अनुभूति होना चाहिये, एक स्वच्छ संकल्प विकसित होना चाहिये, अगर नहीं होता तुम धर्म के सही स्वरूप से अभी परिचित नहीं है। 
विशेष:- आज के वैश्विक परिदृश्य में जो घट रहा है, वह हमारे मानवीय भूलों का परिणाम है, जिन्हें हमें समय रहते ही समझना चाहिये,
प्रकृति ,पर्यावरण, प्रेम ,स्नेह, करुणा यह सब मूल सार्वभौमिक मूल्य है, सार्वभौमिक यानी 
इस पृथ्वी पर सभी के लिये, भौतिक तरक्की हम अवश्य करें, मगर उसका वितरण  असमान हो तो वह सामाजिकता के नियमों के खिलाफ हैं, हमें दृढतापूर्वक हमारी मूल संस्कृति का चिंतन मनन करना चाहिये गैस का अनुसरण करना चाहिये, तभी हम इस समस्या को दूर कर सकते है।