प्रिय पाठक गण,
    सादर नमन, 
 आप सभी को मंगल प्रणाम, 
       आज प्रवाह में हम चर्चा करेंगें, स्पंदन या तरंग पर, यह एक सूक्ष्म विज्ञान है, स्पंदन यानी किसी भी जगह या मनुष्य के भीतर या वहां पर वातावरण में जो भी स्पंदन या तरंगे विद्यमान है, वह किस प्रकार की है।
       सकारात्मक ऊर्जा है या नकारात्मक ऊर्जा है, किस प्रकार के स्पंदन वातावरण में व्याप्त है, यह निष्कर्ष ध्वनि जो वहां पर है, भले ही वह सूक्ष्म रूप में ही क्यों न हो, उस वातावरण की ऊर्जा को बदलने की अचूक सामर्थ्य रखती है। 
     जब साधारण रूप से कहे शब्दों का हमारे ऊपर प्रभाव होता है, तो सूक्ष्म ऊर्जा जो किसी भी वातावरण में है, वहां की ऊर्जा को नकारात्मक या सकारात्मक कर सकती है। 
      यह एक गहरे शोध का विषय है, पर सामान्य रूप से भी बातचीत द्वारा हम कौन सी ऊर्जा उत्पन्न कर रहे हैं, व अगर मौन भी है, तो कौन से स्पंदन हमारे भीतर चल रहे है,
हमारे भीतर सूक्ष्म तरंगे तो चल ही रही है, 
उन्ही तरंगों को हम किस प्रकार से सकारात्मक तरंगों में परिवर्तित करें, यही हमारा प्राचीन विज्ञान व दर्शन हमें बताता है। 
      आंतरिक ऊर्जा का परिवर्तन हम शनै शनै हमारे अभ्यास द्वारा कर सकते हैं, इसे हम विज्ञान या कला दोनों ही कह सकते हैं, यह दोनों का समन्वय है।
       इसे हम परा विज्ञान भी कह सकते हैं, कोई भी मंदिर या स्थान एक दिन में सिद्ध स्थल नहीं बन जाते हैं, वहां पर निरंतर पूजा -पाठ, 
हवन, आरती आदि नियमित किये जाते हैं,
जिससे वहां का वातावरण ऊर्जामय  हो जाता है, यही प्रक्रिया अगर हम अपने घरों में दोहराते हैं, तो घरों की ऊर्जा भी जो है, वह संतुलित होने लगती है। 
      निरंतर चलने वाली यह प्रक्रिया किसी भी स्थान या वस्तु या अपने आसपास के वातावरण को बदलने की एक अद्भुत सामर्थ्य रखती है, इस विज्ञान से हमारे प्राचीन ऋषि-महर्षि भली भांति परिचित थे, भारतीय संस्कृति की गहराई को अगर हमें वास्तव में समझना है, तो हमें सूक्ष्म तरंगों पर कार्य करना होगा, हम स्वयं भी निरंतर अभ्यास द्वारा अपने  आप को सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित कर सकतेहैं, हमारा शरीर कई प्रकार की ऊर्जाओं का एक जोड़ है, जब हमारा जन्म हुआ, उस समय जब हम मां के गर्भ में थे, तब जो ऊर्जा हमारे 
भीतर बन रही थी, बाद में जब जन्म हुआ तो हमारे आसपास भी भिन्न ऊर्जा वाले व्यक्ति, 
वस्तु के संपर्क में हम आते हैं, अपने जीवन काल के दौरान हम कई प्रकार की सकारात्मक व नकारात्मक दोनों ही ऊर्जाओं के मध्य अपना जीवन जीते हैं।
      हम अपनी आंतरिक ऊर्जा को तो निश्चित ही परिवर्तित कर सकते हैं, यह हमारे स्वयं के नियंत्रण में है, परंतु बाह्य ऊर्जा जो वातावरण से, परिवेश से, अनेक अन्य विचारों से, हमारे आसपास घट रही है, उस पर हमारा कोई भी नियंत्रण नहीं होता। 
    हमारा जीवन व यह शरीर स्पंदनो को समझता है, यह समस्त ब्रह्मांड एक स्पंदन है, 
इसमें सभी प्रकार की ऊर्जा है, हम उनमें से किस ऊर्जा से संपर्क स्थापित करते हैं, या करना चाहते हैं, हम उसे ही जाने- अनजाने में आकर्षित करते हैं, बस यही समस्त ब्रह्मांड का सूक्ष्म व विराट दोनों ही स्वरुप है।
      सूक्ष्म से विराट, विराट से सूक्ष्म, हम इस ऊर्जा को किस प्रकार से देखते हैं, यह हमारी अपनी दृष्टि भी हो सकती है।
      प्राचीन महर्षियो ने गहरे शोध के बाद कई बातों को स्थापित किया, हो सकता , हम उन रहस्यो से परिचित नहीं है, पर सत्य है या असत्य, यह तो हमें निरंतर उस चेतना से जुड़ने पर ही प्राप्त हो सकता है।
          मगर स्पंदन की जो भाषा है, आप किसी के लिए भी आंतरिक रूप से अच्छा या बुरा जो भी भीतर से सोचते हैं, वह अंततः कार्य करता तो है।
        इतना तो मैंने स्पंदनों पर कार्य करने के बाद महसूस किया है, सूक्ष्म में जो चलता है, 
अंत में वहीं घटता है, क्योंकि उसके बीज हमारे भीतर विद्यमान थे, व उन्हें  उचित वातावरण अगर हमने प्रदान किया, तो वे निश्चित ही एक समय बाद  वे प्रस्फुटित होंगे 
ही।
         मेरा यह आलेख आप सभी को पसंद आयेगा, ऐसा मेरा मानना है, जो भी मैंने आंतरिक रूप से महसूस किया है, वही मैंने 
शब्दों के रूप में लिखा है। 
    आप सभी का दिन मंगलमय  व ऊर्जा पूर्ण हो, सभी के जीवन में समृद्धि आंतरिक व बाह्य दोनों ही प्रकार की, भौतिक व आध्यात्मिक दोनों प्रकार की समृद्धि जीवन में बढ़े।
       सूक्ष्म स्पंदनों के साथ हम  इस लेख को आज विराम देते हैं, शेष फिर ।
     विशेष:- स्पंदन हम चाहे या न चाहे, अपना कार्य करते ही है, परिवार से ,व हमारे जन्म से 
जो भी हमें प्राप्त हुआ, पूर्व जन्म, इस जन्म वह आगे अभी हम क्या कर रहैं हैं? कितने प्रकार के विभिन्न स्पंदनों के मध्य हमारी यह
जीवन यात्रा चल रही है, किन स्पंदनों की और हम आकर्षित हो रहे है, कुछ तो हमारे हाथ में
हैं, कुछ हमारे हाथ नहीं भी है, इस प्रकार यह एक मिला-जुला स्वरूप है। 
      वैसे गहरी आत्म शक्ति द्वारा हम अपने पूरे जीवन को रूपांतरित कर सकते हैं, अगर हम इसे सही रूप में समझ सके तब। 
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद, 
वंदे मातरम्।

प्रिय पाठक गण,
     सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
      हम सभी उस विराट के अंश है, हम चाहे अथवा न चाहे, माने अथवा न माने, कुछ चीजें हमारे हाथ में है, कुछ नहीं। 
      यहीं पर हमें श्रीमद् भागवत गीता को सही अर्थों में समझने की आवश्यकता है।
     यहां भगवान श्री कृष्ण स्पष्ट रूप से इसकी व्याख्या करते हैं, वह कर्म की महत्ता को समझाते व कर्तव्य को सर्वोपरि मानते हुए 
श्रीमद् भागवत गीता में स्पष्ट घोषणा करते हैं,
की स्वधर्म का पालन हीं सबसे अधिक उत्तम धर्म है, न कि पर धर्म का।
     स्पष्ट रूप से वे कहते हैं, कि आपका जो भी कर्म है, वह गुण दोष से युक्त हो सकता है, 
जैसे अग्नि में धुंआ, सूर्य में अत्यधिक ताप,
जो भी गुण धर्म जिस भी वस्तु या जीव के है,
वे स्वाभाविक है। 
      यहां पर मनुष्य योनि सर्वोपरि इसलिये कही गई है, कि वह विवेकपूर्ण ढंग से अपने जीवन को जी सकता है, उसे किस प्रकार का जीवन जीना है, वह यह तय कर सकता है, 
मनुष्य में कई प्रकार की पूर्व जन्म से प्राप्त धारणाएं व इस जन्म के कर्म सभी का फल उसे प्राप्त होता ही है। 
    निज कर्तव्य को भगवान  श्रीकृष्ण सर्वोपरि  मानते हैं, फिर भी वह गीता जी में 
तीन मार्ग निष्काम कर्म मार्ग, सांख्य योग व भक्ति योग तीनों का ही विवेचन करते हैं, तीनों ही मार्ग मुझ तक आते हैं, यह वह स्पष्ट वर्णन करते हैं, परंतु आपका स्वभाव किसके अधिक अनुकूल है, वह मार्ग आपके लिए श्रेष्ठ है, कर्म सिद्धांत को  सर्वश्रेष्ठ घोषित इसलिये करते हैं,
क्योंकि यह सबसे सरलतम सिद्धांत है, कोई भी जीव कर्म करे बिना रह ही नहीं सकता, तो उन्होंने निज कर्तव्य को श्रेष्ठ कहा।
      इसकी सही व्याख्या हम इस प्रकार कर सकते हैं, जैसे कोई इंजीनियर है, कोई डॉक्टर है, कोई राजनेता है, अध्यापक है, विद्यार्थी है, 
धर्म का उपदेशक है, तब जो भी उसका निज कर्तव्य जो उसने चुना है, या प्रारब्ध वश उसे प्राप्त हुआ है, उसे पूर्ण निष्ठा व मनोयोग पूर्वक वह करें। 
         इतने मात्र से भी हम अपने जीवन में संतुलन ला सकते हैं, व ईश्वरीय कृपा के पात्र बन सकते हैं।
       गीता में निज  कर्तव्य को वे सर्वोपरि मानते हैं, व इसी और वह जगत को प्रेरित करते हैं, क्योंकि यह बड़ा ही सरल व सुलभ मार्ग है, इसमें साधारण शब्दों में गहरी बात कही गई है, इतनी सरलतम व्याख्या भी अगर हम नहीं समझ पाये तो फिर इसमें भगवान का भी क्या दोष?  वे तो सदैव प्राणी मात्र के हित का ही चिंतन करते हैं।
         फिर वे सांख्य योग का भी वर्णन करते हैं, पर वे उसमें कहते हैं व्यक्ति को अपनी अहंकार भाव का व देह के अभिमान का भी 
पूर्णतः त्याग करना होगा, यह मार्ग थोड़ा कठिन होने से वह कर्मयोग को ज्यादा सहज मानते हैं, एक और भक्तिमार्ग का भी विवेचन में करते हैं, वह कहते हैं, तू जो कुछ भी करता है, वह मेरे अर्पण कर दे, नित्य मेरे नाम का
सुमिरन करते जा, नित्य उनका सुमिरन करने से फिर धीरे-धीरे भाव शुद्ध होने लगेंगे, और यह भक्तिमार्ग से भी संभव है।
      आपका चित्त व शरीर किस प्रकार से बना है, इन तीनों मार्ग में से आपके स्वभाव 
के अनुसार आपको कौन सा मार्ग अधिक अनुकूल प्रतीत होता है, वह आप अपना सकते हैं, मार्ग तीनों ही सही है, पर भगवान  श्री कृष्ण ने निष्काम कर्मयोग को सबसे अधिक महत्व प्रदान किया, उन्होंने निज कर्म जो आपने चुना है, या  प्रारब्ध वंश आपको प्राप्त हुआ है, उसे आप पूर्ण ईमानदारी व निष्ठापूर्वक करें, बस यही श्री कृष्ण जी का 
संदेश है, और यह कालजयी है, सदा शाश्वत है।
     भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, आप अपना  कर्म निष्ठा पूर्वक करें वह उसके फल का भार मुझ पर छोड़ दे, अपने अहं भाव का त्याग करें,
चाहे वह कर्मयोग, सांख्य योग, भक्ति योग 
किसी भी माध्यम से हो, निज कर्तव्य को 
निष्ठापूर्वक करने की बात कहता है। 
     हमें इसी जीवन में ईश्वर का सामीप्य प्राप्त हो सकता है, अगर हम  निष्काम भाव से कार्य करने की प्रेरणा श्रीमद्भगवतगीता से प्राप्त करें। यह एक कालजयी  ग्रंथ है, और बहुत ही सरल ,सहज रूप में कर्म सिद्धांत की इसमें व्याख्या की गई है। 
    निज  कर्तव्य को पूर्ण निष्ठा व ईमानदारी पूर्वक करना ही इसका मुख्य संदेश है।
विशेष:- अपने-अपने कर्म को पूर्ण निष्ठा व
ईमानदारी पूर्वक हम करें, अहंकार भाव का त्याग करें, समर्पण व निष्ठापूर्वक अपने कार्य को करें, बस इतने मात्र से भी आप उनकी कृपा के पात्र बन सकते हैं, अपने कर्तव्य को करें व परिणाम की चिंता उस प्रभु पर छोड़ 
 दे, यही गीता -सार है। 
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद 
वंदेमातरम्।

प्रिय पाठक गण,
       सादर नमन, 
   आप सभी को मंगल प्रणाम, 
आज प्रवाह में हम बात करेंगे, गरिमा यानी कि हर व्यक्ति का आदर, हर वह वस्तु भी जो हमें प्राप्त है, जो भी साधन हमें प्राप्त है, उनके प्रति  आदरयुक्त होना, उन्हें सम्मान प्रदान करना, समय अगर अच्छा चल रहा है, तो पूर्ण गरिमा व विनम्रता से उसका भी सम्मान करें, 
विपरीत समय का भी गरिमा पूर्ण तरीके से स्वागत करें, इसका कारण यह है कि विपरीत समय हमें सिखाता है, विपरीत समय हमें संघर्ष का मूल्य बताता है,  तो उसे भी गरिमा हम प्रदान करें, विपरीत समय ही वह समय काल है, जब आपका व्यक्तित्व निखर रहा था, समय के संघर्ष से। 
     तपे बिना तो स्वर्ण में भी निखार नहीं आता, जो व्यक्ति जितने विविध अनुभव व कठिनाइयों से गुजरता है, वह उनसे सीख प्राप्त करता है।
      सीढ़ी दर सीढ़ी उसकी यात्रा चलती है,
वह उस यात्रा को अपनी बुद्धिमत्ता, जिजीविषा व अथक परिश्रम द्वारा सार्थक बनाता है।
       कोई भी व्यक्ति एक दिन में महामानव नहीं बनता, यह एक निरंतर चलने वाली यात्रा है।
    हम सभी ईश्वरीय शक्तियों के मालिक हैं,
पर हम उनका सदुपयोग कर रहे हैं या दुरुपयोग, जो भी इन शक्तियों का स्वयं के लिये, परिवार के लिये, समाज के लिये 
सदुपयोग करता है, अंततः वही विचारधारा ही उसे उस प्रकार के कर्म की और प्रेरित करती 
हैं, व धीरे-धीरे वह अपनी उस यात्रा को वहां 
तक ले जाता है, जिसके लिये आखिरकार उसका जन्म हुआ है, वह प्रेरणा उसे भीतर से प्राप्त होने लगती है। 
      यह सब अनायास नहीं होता, आंतरिक प्रज्ञा जब मनुष्य की जागृत हो जातीं है, तो वह गरिमामय जीवन स्वयं तो जीता ही है, अन्य सभी के लिये भी प्रेरणा का स्रोत बन जाता है। 
     शब्दों की भी गरिमा है, हम क्या सोच रहे
हैं? उसके पीछे का हमारा मूल हेतु क्या है?
क्या वह किसी के हित की भावना से प्रेरित है, या अहित के भाव से, जब भी हमारा हेतु स्वयं का स्वार्थ न होकर परमार्थ की शक्ति से प्रेरित होता है, हम भीतर से शक्ति युक्त होते हैं। 
     हमारी शक्ति व सामर्थ्य अगर हम स्वयं के, परिवार के वह समाज के संवर्धन में लगा रहे हैं, तो निश्चित इसके दूरगामी  परिणाम आपकी गरिमा में वृद्धि करेंगे।
        यह यात्रा कोई सामान्य यात्रा नहीं है, यह मानव के मानवीय परिष्कार की एक अद्भुत यात्रा है, जो भी अपने जीवन काल में यह तथ्य समझ जाता है, वह फिर अपने आप उस यात्रा की और खींचा चला जाता है।
       कोई अज्ञात शक्ति आपको प्रेरणा भीतर से प्रदान करती जाती है, मार्ग प्रशस्त करती जाती है, और आप अपने पथ पर आगे बढ़ने लगते हैं। कोई तो ऐसी शक्ति अवश्य ही  इस संपूर्ण ब्रह्मांड में विद्यमान हैं, जो इस संपूर्ण ब्रह्मांड का संचालन कर रही है। 
      हम और आप केवल निमित्त होकर अपनी अपनी भूमिकाओं का निर्वहन भर कर रहे हैं।
    यह कितनी कुशलता पूर्वक व गरिमामय  तरीके से हम कर पाते है , वही हमारी व सभी की यात्रा है, भीतर से बाहर की और, अंतः प्रेरणा से, स्वप्रेरणा से जागृति की और। 
       अपनी गरिमा सदैव बनाये रखें, कोई विपरीत भी आपसे जा रहा हो, जाने दे, कोई अनुकूल भी है, तो भी ज्यादा गर्व न करें। 
     दोनों ही स्थितियों में शांत चित्त रहे, व अपने मौलिक स्वभाव, जो प्रकृति ने आपको प्रदान किया है, दयामय, क्षमाशील, उसे धारण करके रखें। 
      जीवन में अनुकूलता-प्रतिकूलता, यश-अप यश, मान-अपमान यह सभी अवसर आयेंगे ही, पर अपने मूल मार्ग से विचलित न होना ही अपनी गरिमा बनाये रखना है।
विशेष:- हर क्षण आपकी परीक्षा की घड़ी है, आप उसमें क्या करते हैं? वह आपकी स्वयं की ही चुनी हुई राह है, अक्सर कामयाबी की राह बड़ी व बाधाओं से भरी होती है, चुनौतियों से परिपूर्ण होती है, मानवीय जीवन की गरिमा उन चुनौती पूर्ण स्थितियों को स्वीकार कर
उन्हें अपने जीवन का एक अनिवार्य अंग जब हम मान लेते हैं, तो वे चुनौतियां ही हमें गरिमा प्रदान करने लगती है, पूर्ण साहस से उनका सामना करें। 
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत, 
जय हिंद, 
वंदे मातरम।

प्रिय पाठक गण,
   सादर नमन,
   आप सभी को मंगल प्रणाम, 
     प्रवाह में हम आज बात करेंगे, व्यवहार- कुशलता पर, हम दैनिक जीवन में अपना कार्य करते हुए क्या किसी का धन्यवाद या
कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं?
     जो भी इस समाज से, सृष्टि से, हमें प्रेम,
स्नेह, आदर प्राप्त हुआ है, हम उसके पात्र तब तक ही है, जब तक हमारे व्यवहार में विनम्रता व शिष्टता दोनों ही है। हमारे अपने व्यवहार से हमारे व्यवहार का बोध होता है, अन्य का नहीं।
       इसीलिए कहीं व्यक्ति पद, प्रतिष्ठा पाकर
अपने व्यवहार को अगर मर्यादित नहीं रख पाते हैं, तो फिर उनका वह  अमर्यादित व्यवहार देर-सवेर उन्हें ही नुकसान पहुंचाएगा। 
        एक व्यवहार कुशल व्यक्तित्व के हम मालिक बने, इसके लिए हमें अपने भीतर कुछ गुणों को विकसित करना होगा।
      हास्य बोध , एक ऐसी कला है, जो सभी को पसंद आती है, हमें यह कला अगर मिली है, तो इसका सही दिशा में प्रयोग हमें करना चाहिये।
      मगर हास्य बोध इस प्रकार का हो, किसी को ठेस पहुंचाये बगैर हम अपनी बात हास-परिहास  में कैसे कहें, गंभीरता व हास्य बोध दोनों ही आवश्यक है, परंतु हर समय गंभीरता से हम एक बोझिल व्यक्तित्व के स्वामी बन 
जायेंगे। हास्य -रस का जीवन में प्रयोग हमारे व्यक्तित्व में एक विशिष्टता हमें प्रदान करता है। 
        शब्दों का चयन हमारा कैसा है? क्या हम अपने शब्दों से किसी को आहत तो नहीं कर रहे । अगर कोई हमसे आहत होता है, 
तो  हमें हमारे व्यवहार में सुधार करने की गुंजाइश है। 
       मिलनसार व हंसमुख व्यक्तित्व के मालिक किसी भी सभा में उर्जा उत्पन्न कर सकते हैं, हास्य किस प्रकार का हो, जिससे वातावरण में प्रफुल्लता फैले, हास्य जीवन में तनाव को भी काम करता है, हमारे शब्दों का चयन जितना अच्छा होगा, हमारी वाणी का प्रभाव उतना ही बढ़ेगा। 
     जब हम बातचीत करते हैं, तो एक सधा हुआ व्यवहार हमें करना चाहिये, व्यवहार कुशलता का ज्ञान हमें कई प्रकार की असुविधाजनक परिस्थितियों से बाहर ला सकता है।
      हमारा जो भी व्यवहार है, वह पलटता अवश्य है, शब्दों की मर्यादाओं का ध्यान रखें 
व सार्वजनिक जीवन में अपने आचरण को, 
वाणी व आचरण दोनों में सही तालमेल  रखें,
आप वाणी व  आचरण में जितना सही
तालमेल रख पाते हैं, वह आपको किसी भी क्षेत्र में आगे करता है। वाणी का प्रयोग हमेशा सोच- समझ कर, संतुलित करने का प्रयास हमें करना चाहिये।
      सार्वजनिक समारोह में अत्यधिक गंभीरता हमें नहीं रखनी चाहिये, सहज, सरल
व आत्मीयता पूर्ण व्यवहार हमें सभी से करना चाहिये।
     अपनी ओर से कभी भी अपशब्दों का प्रयोग हमें नहीं करना चाहिये, यह आपके व्यक्तित्व की गरिमा को गिराता है। 
      सभ्यता पूर्वक बात करने से हमारे व्यक्तित्व का प्रभाव बढ़ता है। अहंकार को जितना अपने जीवन से हम हटायेंगे, उतना ही व्यक्तित्व हमारा प्रखर होगा, अपने व्यवहार में एक संतुलन हमेशा रखें, क्योंकि आपका व्यवहार ही आपके जीवन में आगे ले जाता है।
        व्यक्तित्व के कई पहलुओं पर में से एक वाणी का प्रयोग भी है, जितना कुशलता पूर्वक हम इसका उपयोग करेंगे, उतना ही जीवन में हमें लाभ प्राप्त होगा। 
 विशेष:- व्यवहार- कुशल बने, किस प्रकार से हमें अपनी स्वयं की गरिमा को रखना है, वह हमें अपने व्यवहार से ही बताना होता है, शब्दों की गरिमा हमेशा बनाये रखें, व्यवहार कुशल अवश्य बने, मगर हमें इस बात से भी अनभिज्ञ नहीं रहना चाहिये, हमारे व्यवहार कुशलता का कोई अनुचित लाभ उठायें।
आपकाअपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत, 
जय हिंद, 
वंदे मातरम



 

प्रिय पाठक गण,
   सागर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
       आज मेरा विषय है, उम्मीद से ऊर्जा,
अगर मनुष्य के जीवन में उम्मीद या कहे, आशा खत्म हो जाये, निराशा घर कर ले, तो फिर मनुष्य अपने किसी भी कर्म को आखिर
क्यों करेगा? 
       भले ही उसकी वह उम्मीदें पूरी हो ना हो, यह एक अलग बात है, मगर मनुष्य मात्र को अपने जीवन में आगे बढ़ने का हौसला उम्मीद प्रदान करती है, व्यक्ति अपनी आंतरिक ऊर्जा क अगर सही उपयोग कर सके, जो उसका यह जीवन है, वही पूर्ण सुखमय हो सकता है,
       स्वर्ग नरक की सारी परिकल्पनाएं हमारे अपने मस्तिष्क की उपज है, यह हमें  जीवन के वास्तविक लक्ष्यों से दूर करती है, हमें भ्रमित करती है।
         स्वर्ग हमें इसी जीवन में प्राप्त है ही, 
मगर हम स्वयं ही उसे अनदेखा किये हुए हैं।
    अगर हमारे मन में आनंद व प्रफुल्लिता हर समय बनी रहती है, हम किसी भी परिस्थिति में हमारे भीतर की ऊर्जा को नष्ट नहीं होने देते, सदा ऊर्जावान रहकर अपने लक्ष्य की
और चलते रहते हैं, तो यह ब्रह्मांड स्वयं ही आपकी सहायता को तत्पर है। 
       आप आशावादी रहे, निरंतर सकारात्मक चिंतन को ही जीवन में स्थान दें, आप पायेंगे,
हर और से आपको सकारात्मक संदेश ही प्राप्त हो रहे हैं, आप प्रगति के नित्य नये सोपानों को छु पा रहे हैं, जब भी हम किसी बड़े कार्य को करने का मानस बनाते हैं, तो सर्वप्रथम हम अवचेतन में उसके बीज बो रहे होते हैं, अतः जब हम विचार को भी अपने भीतर प्रवेश दे, वह सकारात्मक विचार ही हो,
क्योंकि जो आप अपने भीतर बो रहे हैं, अंततः समय आने पर आपको उसकी ही फसल काटना है, विचारों को जब आप अपने भीतर स्थान दें, तो वह विचार, शुद्ध , पवित्र, आंतरिक ऊर्जा से युक्त होना चाहिये।
          इसलिये अपने मन में कभी भी हीन विचारों को स्थान प्रदान न करें, पूर्ण आशावादी रहे, सकारात्मक प्रयत्न सदैव करते रहे, अपनी आंतरिक ऊर्जा शक्ति पर कभी भी संदेह न करें। 
      हम सभी इतनी अधिक सामर्थ्य अपने भीतर रखते हैं, जिसे शब्दों में बांधा नहीं जा सकता, सकारात्मक रहे, नित्य सुंदर भाव व
विचारों से आप परिपूर्ण रहे, अपनी आंतरिक सामर्थ्य को जगाये, आप अपने इसी जीवन में
चमत्कारिक परिणाम प्राप्त करने लगेंगे। 
           समय कभी भी बदलता नहीं, आपको अपने अवचेतन व स्वयं को बदलना होता है,
परिकल्पना हमेशा बड़े स्वप्नों की करें, क्योंकि जो भी निरंतर आपके भीतर चल रहा है, अंततः वह एक दिन घटेगा अवश्य, उसे घटने से कोई भी नहीं रोक सकता।
    अच्छे स्वप्न देखें, जब आप विचार अच्छा आगे बढ़ने का, मन में प्रस्कफुटित करोगे,
तभी तो यह संपूर्ण ब्रह्मांड आपकी सहायता करेगा। 
        मन के भीतर जो भी विविध विचार है,
उनमें से श्रेष्ठतम विचार कौन सा है?  उसे निरंतर दोहराये, कुछ दिनों में आप पायेंगे ,
आपकी पूरी दुनिया बदल रही है। 
       आंतरिक विचारों को शुद्ध व प्रेरणा पूर्ण बनाये , प्रसन्न चित्त रहे  , अपना स्वयं का
अवलोकन करें, कहां पर चूक हुई, सुधारते रहे, यह ब्रह्मांड की शक्तियां आपकी सहायता करना चाहती है, पर आप उन शक्तियों से जुड़िये है तो सहीं।
         आंतरिक ऊर्जा को बदले बगैर हम बाह्य ऊर्जा को सकारात्मक कैसे कर सकते हैं? 
       सबसे पहले अपने मानस पर कार्य करें, 
उसे निर्देश दें, सब कुछ संभव है, इस प्रकार के सकारात्मक विचार निरंतर अपने भीतर प्रवाहित होने दे, एक दिन यह सकारात्मक ऊर्जा ही आपको शिखर पर पहुंचा देगी, परिकल्पना सदैव शुभ करे, जब आप शुभ की परिकल्पना करते हैं, तो भीतर एक विचार उत्पन्न कर रहे होते हैं, इसलिए सबसे पहले अपने आप को वैचारिक रूप से समृद्ध बनाये 
ऐसा करते ही आप पायेंगे, यह ब्रह्मांड की शक्तियां तो सदैव आपके साथ ही थी।
     आपके भीतर जो विचारों की श्रृंखला है,
उन्हें सदैव सकारात्मक विचारों से परिपूर्ण 
करते रहे, अंततः वही सकारात्मक ऊर्जा आपके लिए मार्ग प्रशस्त करेगी।
विशेष:- सर्वप्रथम जीवन में सदैव हर परिस्थिति में सकारात्मक रहे, परिकल्पना तो हम सकारात्मक कर ही सकते हैं, सदैव अच्छी व बेहतर परिकल्पना ही करें, क्योंकि जो आप अपने भीतर बो रहे होते हैं, आखिरकार फसल तो उसकी ही आप काटेंगे, इसलिये अच्छे व शुभ विचारों को स्थान दें, आप जो भी विचार कर रहे होते हैं, आकर्षित उसे ही करेंगे, निरंतर सकारात्मक रहे, प्रयास करते रहे , सफलता आपके कदम चूम रही है, यह भरोसा रखें। 
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद 
वंदे मातरम्।
प्रिय पाठक गण,
    सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
        हम हमारे सभी कार्य करते हुए भी अपनी आंतरिक शांति को बनाए रख सकते है, धीमे-धीमे हम अपने कदम मजबूती से बढ़ाते जाएं, जीवन में समन्वय की कला जिसे भी आ गई, फिर उसके लिए कोई भी कार्य इस जगत में, संसार में कठिन नहीं है, जो निरंतर जगरुक है, अपने भीतर व बाहर दोनों ही क्रिया कलापों में  पूर्ण होशपूर्वक अपने जीवन के निर्णयों को करता है, परिस्थितियों का सही तरीके से अध्ययन करता है, भूतकाल में की गई गलतियों से सबक सीखता है, वर्तमान क्षण में सही निर्णय को करता है, अपने आसपास घट रहे परिदृश्य का सावधानी पूर्वक जो अध्ययन- मनन करता है,
वह अपने इसी जीवन काल में समस्त उपलब्धियों को हासिल करता जाता है।
   दृढ़ निश्चय से बढ़कर जीवन में कुछ भी अधिक मूल्यवान नहीं है, मगर वह दृढ़ निश्चय, संकल्प अपनी स्वयं की आंतरिक शांति, घर में शांति व समाज में शांति किस प्रकार स्थापित हो?   किस प्रकार से हम समन्वय करे, कि स्वयं का, हमारे घर का, जहां हम रहते हैं, उस स्थान का व समाज का, इन सब बातों के बीच में आप कितना बेहतर तालमेल बिठा पाते हैं, उन सभी से कितनी खूबसूरती से समन्वय बिठा पाते हैं, जैसे-जैसे आप परिपक्व होंगे,
जीवन के अनुभव बढ़ने लगेंगे, और वही जीवन के जो निजी अनुभव है, वही आपकी सबसे बड़ी पूंजी है, भौतिक धन हमें एक बार प्राप्त होने पर वह कितने समय हमारे हाथ में  रहेगा, यह हमें भी पता नहीं होता है। 
     अगर आप किसी भी कला में माहिर हो या कोई ऐसा कर्म आप कर रहे हैं, जिसे आपने अपने जीवन में समय दिया है, तो वह कला आपके लिए वरदान है, क्योंकि वह आपकी ऐसी निजी संपत्ति है, जिसे आपने वर्षों की मेहनत के फल स्वरुप पाया है। 
       समाज के भीतर जो भी बुजुर्ग है, वे अपने अनुभवों की परिपक्वता के कारण 
आदरणीय व पूजनीय है, व हर परिस्थिति से जो उनके जीवन काल में उपस्थित हुई, उसका उन्होंने किस प्रकार धैर्य पूर्वक सामना किया, 
वह हमें इसका ज्ञान दे सकते हैं। जीवन में मात्र भौतिकता ,मात्र आध्यात्मिकता या केवल सामाजिक संबंध, यह तीनों ही अपने आप में अपूर्ण है, जब तक इन तीनों का सही तरीके से समन्वय हम अपने जीवन में नहीं करते, हम सही परिणाम नहीं प्राप्त कर सकते। 
        भौतिक साधन जीवन यापन के लिये,
आध्यात्मिक ऊर्जा हमें चेतनायुक्त रखने के लिये, सामाजिक सौहार्दपूर्ण संबंध हमें सामाजिक ऊर्जा से, सकारात्मक ऊर्जा से युक्त करते हैं, हम जितना इन बातों को गहराई से समझते हैं, उतना ही हमारा जीवन शांतिपूर्ण ढंग से चलने लगता है। 
      और स्वयं का अनुशासन इसमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, जो भी व्यक्ति स्व अनुशासन का पालन करता है, वह अधिकतम उपलब्धियां को अपने इसी जीवन काल में प्राप्त कर सकता है।
         एक बार अपनी जीवन यात्रा में जो भी आप कर रहे हैं, सही तरीके से समझने का ईमानदार प्रयास आप अवश्य करें, आपके जीवन की दिशा एक सकारात्मकता की और जब बढ़ती है, तब आप अपना स्वयं तो सुधार करते ही हैं, कई अन्य लोगों के लिए मजबूत प्रेरणास्त्रोत भी आप बन जाते हैं।
      जितना हम गहन अध्ययन करेंगे, हमारे जीवन को उतना ही बेहतर हम कर पायेंगे,
इसमें तनिक भी संदेह नहीं, तो इस प्रकार तीन प्रकार की ऊर्जा, भौतिक, आध्यात्मिक, 
सामाजिक इस त्रिवेणी को हम अपने जीवन में स्थान दें, आपको फिर किसी अन्य त्रिवेणी स्नान की आवश्यकता ही महसूस नहीं होगी। 
      अगर इन तीनों का सही समन्वय आपने अपने जीवन में जिया है, व उस पर ईमानदारी पूर्वक आप चले हैं, तो आपका वर्तमान व भविष्य दोनों ही उज्जवल है।
     मानस में मंथन लगातार हम करते रहे, 
स्वयं का, जितना हम मंथन करेंगे, उतने ही अधिक मोती हमें प्राप्त होंगे।
विशेष:- अपने जीवन में अपने अनुभव, बुजुर्गों के अनुभव, स्वयं कुछ नया सीखने की ललक 
व युवा वर्ग से बेहतर तालमेल, अगर हम यह  50 से 70 वर्ष के बीच का जो समय है, वह जो उम्र के इस दौर से गुजर रहे हैं, वे यह कर पाये तो शेष जीवन बेहतरीन अंदाज में जीते हुए इस संसार से प्रयाण करेंगे।
आपका अपना, 
सुनील शर्मा, 
जय भारत, 
जय हिंद, 
वंदे मातरम।
 
प्रिय पाठक गण,
    सादर नमन, 
         परम वन्दन, आप और हम सभी उसी के आश्रय में है, यह चराचर जीव जगत इस एक सत्ता के आश्रय में है।
        वे प्रभु कभी किसी को, कभी किसी को
निमित्त बनाकर कार्य करते हैं, मगर उनकी कृपा को समझ पाना हमारे बस में है नहीं,
वे जैसे चाहेंगे  इस संसार सागर में आपकी गति को उधर ही मोड़ देंगे, जिसमें आपका हित  हो, जब हम उनकी अनन्य शरण हो जाते हैं, तो वह लीलामय प्रभु भी फिर अपनी कृपा हम पर बरसाने लगते हैं।
          जो परम भक्ति -भाव से, पूर्ण श्रद्धापूर्वक उनका स्मरण करते हैं, तो वह हमें अधोगति से निकालकर परम गति की और 
हमें चलाने लगते है।
     वह जब चाहे, तब संपूर्ण सृष्टि को आपके अनुकूल बना सकते हैं या फिर प्रतिकूल भी बना सकते हैं। 
    कब क्या घटता है? केवल वे  ही जानते हैं,
हम सब तो केवल अपना- अपना दायित्व निभाते हुए उनकी शरणागत होकर रहे, नित्यप्रति जो भी परम मंगल भाव से वंदन करता है, उनकी शरण में रहकर जो कार्य करता है, वह इस भवसागर में तो मुक्त हो ही जाते हैं, उनके कृपा -आश्रय में होने से   प्रतिकूलताएं भी अनुकूलताओं में बदल जाती है। 
       अपनी समस्त सफलताओं का श्रेय हमें उनके श्री चरणों में ही डाल देना चाहिये, वह जिसको भी अपनी मंगल शरण में लेते हैं, उसे फिर कभी भी वह नहीं छोड़ते, संसार में सभी हमसे केवल अपने अपने -अपने स्वार्थो की
पूर्ति हेतु ही हमसे बंधे होते हैं, मगर वह परमात्मा बिना किसी स्वार्थ के अपनी कृपा हम पर बरसाते हैं, निमित्त वे जिसे चाहे, उसे बना दे। 
      वे कृष्ण, कन्हैया, गिरधारी हम सभी की लाज रखने वाले हैं, वे बालकृष्ण, नटखट है, इस प्रकार उनकी चंचलता व नित्य मधुर होठों पर सदैव मुस्कान को वे धारण करने वाले हैं।
उनकी मुस्कान अति प्रिय व मधुर है, वह स्वयं भी बड़े ही मधुर है।
      वह अपनी दिव्य शक्ति व माधुर्य से इस संपूर्ण जगत का संचालन कर रहे हैं, उनकी कृपा नित्य बरस रही है, मंगल कर रही है। 
      परम मंगल को प्रदान करने वाले, प्राणी मात्र को शरण में रखने वाले, परम माधुर्य जिनकी वाणी में है। जो चातुर्य से पूर्ण है, जो समस्त मंगल कामनाओं को पूरा करने वाले हैं
उनकी नित्य कृपा से ही सब कार्य पूर्ण हो रहे हैं, वही संसार के समस्त सुख वैभव को प्रदान करने वाले हैं, मंगल शरणागति द्वारा ही हम उनकी कृपा को पा सकते हैं, कोई भी अन्य उपाय नहीं है ।
        इस संसार चक्र में हम सभी हैं, केवल उनकी मंगल कृपा के सिवा कोई भी अन्य द्वारा नहीं है। 
       सद्गुरु सबका मंगल करें, सब पर कृपा करें, वे परमात्मा सब पर कृपा करें, यही मंगल भाव, उनके श्री चरणों में हमें लेकर आता है। 
      हे परम पिता, परमात्मा, अगर हम यह समझते हैं, तो हम भूल कर रहे हैं, वह हमसे जो कार्य करवाना चाहता है, उसने हमें माध्यम बनाया है, यह उसकी मंगल कृपा ही तो है। हम जैसे कितने ही इस संसार में आए व गये,
मगर जिस पर उसकी कृपा बरसी, वह इस संसार सागर में रहते हुए भी उनकी कृपा से मुक्त हो गया। 
      वे प्रभु समय-समय पर किसी का मान बढ़ा देते हैं, कभी मान घटा भी देते हैं, वे जो भी करते हैं, भेद केवल वहीं जानते हैं, अगर सब कुछ हम जान ले तो फिर उस विराट सत्ता को कौन मानेगा?  वे सबका मान रखने वाले हैं।
 विशेष:- हम सभी का जीवन एक नौका की भांति है, हम सब संसार -सागर में है, वह उनकी कृपा बिना हम एक पग भी नहीं चल सकते, उनके मंगल कृपा में रहे, आनंद में रहे, 
अपने प्रयास करते रहे, शेष परमात्मा पर छोड़ दे। आपका हित किस मे छिपा है, वे ही जानते हैं ।
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत, 
जय हिंद,