प्रिय पाठक गण,
       सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
     प्रवाह किसी अद्भुत वैचारिक यात्रा में आप सभी का स्वागत है, आप सभी को हृदय से मंगल प्रणाम, 
      पुनः आप सभी को सादर नमन, प्रजातंत्र या जनतंत्र , यानी 
जनता के लिये, जनता के द्वारा, जनता की भलाई के लिए चुना गया तंत्र। 
      इस पूरे तंत्र में जन का महत्व सबसे अधिक है, वह समय-समय पर जनता ने इसे अपने महत्वपूर्ण अभिमत द्वारा सिद्ध भी किया है।
      हमारे राष्ट्रगान की प्रथम पंक्तियां भी इसी महत्वपूर्ण भाव को कहते हुए हमें एक राष्ट्र के रूप में बांधती है, हमें स्वत: ही इसे समझना होगा, हम जहां पर भी हैं, पूर्ण गरिमा के साथ उस पद,
जगह पर अपनी पूर्ण चेतना का उपयोग समाज -हित और राष्ट्रहित में किस प्रकार हो, इसके लिए सर्वप्रथम हमें स्वयं के कर्तव्य वह उत्तरदायित्व के प्रति भी सजग होना पड़ेगा, केवल आलोचना मात्र से इसका जवाब न देकर हमें अपने मूल कर्तव्य के प्रति भी सजग होना ही पड़ेगा, अगर हम कोई भी कदम, चाहे वह कितना ही छोटा ही क्यों ना हो, किसी और ले जाते हैं, उस और अगर हम सचेत नहीं है, तो हमें किसी को दोष देने का अधिकार भी नहीं है। पहले हम अपने कर्तव्य के प्रति सचेत हो, अगर हम ईमानदारी से अपने कर्तव्य को पूरा करते हैं, तो यह भी एक राष्ट्रभक्ति ही है, और अगर हम अपनी जो भी कर्तव्य है, उनके परिपालन में कोई त्रूटि करते हैं, तो इसके दोषी हम स्वयं है, कोई अन्य नहीं। 
          राष्ट्र ने हमें अधिकार तो दिये ही है, मगर इसके प्रति हमारे कर्तव्य भी है, वह जनतंत्र की, जनता की भूमिका इसमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण इसीलिये हैं, क्योंकि इसकी रचना संविधान में इस राष्ट्र के उत्थान हेतु जो शक्ति हमें संविधान में प्रदान की है,
उसका सदुपयोग तो हमें करना ही चाहिये, जहां पर इसका दुरुपयोग हो रहा है, वहां पर भी सतर्कता आवश्यक है। 
       तभी जनतंत्र शब्द की गरिमा वह इस राष्ट्र की गरिमा दोनों के साथ हम न्याय कर सकेंगे। 
      अगर कोई भी बात जो हमें ऐसी प्रतीत हो, जो समाज या राष्ट्र को विखंडित करती हो, तो यह भी जनता का दायित्व है, उसे पूर्ण शक्ति से नकारे, यही जनतंत्र की असली ताकत भी है। 
        हमारे राष्ट्रगान की प्रथम पंक्तियां भी इसी बात की और संकेत करती है, "जन गण मन अधिनायक जय है, भारत भाग्य विधाता" इतना स्पष्ट संदेश हमारे राष्ट्रगान ने हमें दिया है, तो हमें आंतरिक रूप से जागृत होना चाहिये, जहां पर भी हमारी आंतरिक चेतना इस बात के लिए समर्थन न दे, उसे  सदैव जागृत रखें, आज भी जब राष्ट्रगान हमारे कानों में गूंजता है, तो हमारा सीना गर्व से, मस्तक भी गर्व से ऊंचा हो जाता है, जैसे ही हम राष्ट्र बोध से अपने को परिपूर्ण करते हैं, हमारी उस चेतना से  , हमारे भीतर एक ऊर्जा का संचार होता है, और वही आंतरिक ऊर्जा हमें अपने कर्तव्य के प्रतिपादन के लिए प्रेरित करती है।
      राष्ट्र के प्रति प्रेम -भाव , व जागरूकता दोनों ही आवश्यक है,
अत्यधिक जोश में हम कोई गलत निर्णय तो नहीं कर रहे, इसके 
प्रति सदैव सचेत रहें, राष्ट्र प्रथम हैं, मगर इसका निर्माण तो जनतंत्र में जनता से ही हुआ है, तो जनता को भी अपने दायित्व को समझना होगा, जो भी राष्ट्रहित में हो उसका पूरजोर समर्थन करें,
जो भी गए थे हम राष्ट्र के हित में उचित नहीं लगती, उसका विरोध भी अवश्य करें, केवल तटस्थ रहने से कार्य नहीं चलेगा।
           इस राष्ट्र की असली शक्ति स्वयं जानता है, जिसके द्वारा हम सत्ता को चलाने वाले, जो भी हमारा नेतृत्व कर रहे हैं, उनका चयन करते हैं। 
           राष्ट्र प्रेम से जो भी आंतरिक रूप से ओत-प्रोत है, वह इस राष्ट्र के संवर्धन में जो भी उचित लगे, उसका हदय से समर्थन करें, 
साथ ही जहां पर भी आपको यह ज्ञात हो, कि आपके इस कदम से राष्ट्र की क्षति है, तो वह न उठाएं, विनम्रता पूर्वक प्रतिरोध भी 
अवश्य करें, केवल मुक दर्शक बने रहकर अगर हम सब देखते हैं,
तो जागरूकता के अभाव में, जो इस राष्ट्र के प्रति हमारा मूल्य दायित्व भी है, उसका निर्वाह नहीं कर रहे हैं।
      हमारी स्वतंत्रता हमें कहीं क्रांतिकारियों के बलिदान के बाद
प्राप्त हुई है, अतः एक राष्ट्र के नागरिक के रूप में, अगर हमारे अधिकार हैं ,तो कर्तव्य भी है।
     अपने- आप से संवाद अवश्य करें, क्या हमारी भूमिका, जो चाहे बहुत छोटी क्यों ना हो? इस राष्ट्र के निर्माण में हमारी क्या भूमिका है? सर्वप्रथम हम जहां पर भी हैं, पूर्ण चेतना युक्त होकर हमारे कदम को स्वयं परखे, हमें देश ने कुछ मौलिक अधिकार दिए हैं तो कुछ मौलिक कर्तव्य भी प्रदान किये है।
        हम अधिकारों की तो बात करते हैं, मगर कर्तव्य का भी 
स्मरण रखें, और यह स्मरण हमें केवल स्व जागरण द्वारा ही हो सकता है, अन्य कोई दूसरा मार्ग  है ही नहीं।
      जब भी हम संशय की स्थिति में हो, अपने अंतर्मन में झांकें,
सबसे सही उत्तर हमें वहीं से प्राप्त होगा, क्या उचित है? क्या अनुचित है? इस पर गहरा विचार करें, गहन विचार करने के उपरांत ही हम कोई भी महत्वपूर्ण निर्णय करें, ऐसे किसी भी 
कार्य का समर्थन किसी भी कीमत पर ना करें, जो आपके आंतरिक मूल्यों से मेल न खाती हो, हम राष्ट्र को जोड़ने वाले प्रत्येक कार्य का समर्थन करें, पर साथ ही जो राष्ट्र के प्रति सही न हो, राष्ट्रीय विखंडन की जो बात करें, सर्वप्रथम उसके आचरण को परखे, अगर आचरण राष्ट्र हित की और नजर आता है, तो निश्चित ही उसका समर्थन भी अवश्य करें, वह जो भी राष्ट्र विरोधी कृत्य करता हो, उसका समर्थन न करें, तभी हमारे जनतंत्र की सार्थकता होगी। हम स्वयं भी  वह आचरण न करें, जिसकी उम्मीद हम सामने वाले से करते हैं। मेरा आशय यहां यह है, की सर्वप्रथम जनता को भी राष्ट्र के प्रति जागरूक होना ही होगा। 
  विशेष:- जनतंत्र में जनता जनार्दन की महिमा हमारे राष्ट्रगान की प्रथम पंक्तियों में ही वर्णन कर दी गई है, आइये, राष्ट्र की गरिमा के प्रति हम स्वयं तो सचेत रहे, हमारे आस-पास भी उसे चेतना का हम निर्माण करें, राष्ट्र की गरिमा ही सर्वप्रथम है, इसे सदैव जनता भी ध्यान रखें, तभी जनतंत्र , हमें राष्ट्रबोध के साथ ही अपने आसपास घट रहे वातावरण से भी परिचित होना होगा, क्योंकि चेतना से युक्त होने पर ही हम सही निर्णय कर सकेंगे। 

आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद

प्रिय पाठक गण,
      सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, अपनापन इस शब्द में ही इसकी सारी शक्ति भी छुपी हुई है, अपनापन यानी अपनाना, जो भी है, जैसा भी है, उसे उसी के मूल स्वरूप में जैसा भी उसका स्वभाव है, उसके साथ ही अपना लेना। 
      यह अपनापन या आत्मीयता अब लोगों में धीरे-धीरे हटने लगी है, इसका मुख्य कारण मनुष्य का निजी स्वार्थ है, दर्शन यह भाव मनुष्य की एक बहुत बड़ी ताकत है, यह एक दुर्लभ व विलक्षण  गुण भी हैं। जो प्रकृति प्रदत्त है, यह गुण सहज ही ,जन्म से ही हमें प्राप्त होता है, पर हम धीरे-धीरे भौतिकवाद की इतनी अधिक चपेट में आ गये कि हम संगीत, जीवन का रस, अपनापन, सबको अपने की जो कला थी, वह हम भूलते गये, यहीं से हमारी मानवीय गरिमा के पतन का भी प्रारंभ होता है, अगर हम ईश्वर प्रदत्त यह सहज गुण भूल रहे हैं, तो यह समाज के लिये व हमारे लिये भी अच्छा नहीं है।
         अगर हम व्यक्ति को वह जैसा भी है, उसे वैसा ही मान कर अपना ले, तो सहज हम भी रहेंगे वह सामने वाला भी सहज होगा।
        कोई भी बात हम जितनी सरलतापूर्वक, बगैर किसी आडंबर के, हृदय से जो भी सही लगे, वह कह दे, तो हमारे आपसी रिश्ते भी औरों से मधुर होंगे। 
      जितना हम अपने व्यवहार पर निगाह रखेंगे, सुधार उतना ही अधिक होगा , कोई भी नए रिश्ते में एक ठहराव, एक समय के अंतराल में ही आता है,  उचित प्रतीक्षा करें  , जो भी पुराने रिश्ते 
वह नए हम निर्माण करते हैं, उन्हें समय-समय पर हम सींचते रहे,
उन्हें स्नेह का खाद पानी, सरल भाव हम प्रदान करते रहे ,तो इस  जीवन की , जिसमें संगीत, कला का कोई स्थान न हो तो तो वह शुष्क हो जायेगा, इसमें एक संगीत होना चाहिये, अपनापन ,हम जहां रहते हैं, उन्हें प्रदान करें, रिश्तो को संबल दे, हर रिश्ता आपसे कुछ कहता है, संवाद, वह भी सार्थक दिशा में हो, तो ही वह असली  दिशाबोध देता है। अपनेपन का, स्नेह का, हम प्रयोग नित्य अपने जीवन में करें, उसके बिना यह जीवन नीरज व शुष्क सा होकर रह जायेगा।
           सत्य चाहे कितना भी कठोर हो, हम उसे मुख न मोड़ें, पर वह समय अनुकूल भी हो, इस बात का ध्यान रखें । पेड़ -पौधे, जीव- जंतु, सृष्टि के सभी जीव स्नेह को तरस रहे हैं। वह केवल परमात्मा की कृपा से प्राप्त होता है, प्रेम को जीवन का मुख्य आधार बनाये, ईश्वर भी आपकी गलतियों को माफ करता आया है वह करता है, आप भी करें, यही जीवन जीने का मुख्य आधार बना लें। नारी शक्ति है, उसमें प्रकृति ने विशेष सौम्यता व नारीत्व  प्रदान किया है, वह अपनी प्रेम की शक्ति से परिवार को परिवार बनाती है।
 विशेष:- अपनापन व आत्मीयता , यह प्रकृति प्रदत वह गुण है,
    जो अपनों को तो दुलार प्रदान करता ही है, जो गैर है, उन्हें भी अपना बनाने की ताकत रखता है, मगर इसका इस्तेमाल हम अपने स्वार्थ के लिए न करें, नहीं तो यह मिलावट उत्पन्न कर देगा। 
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद


प्रिय पाठक गण,
     सागर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, आज प्रवाह की इस अद्भुत मंगलमय यात्रा में हम संवाद कर रहे हैं।
      आत्मविश्वास की शक्ति, यह जीवन निरंतर सीखने की यात्रा
है, और इस यात्रा को पूर्णता तक ले जाने के लिये आंतरिक दृढ़ता की आवश्यकता है, वह भीतरी शक्ति ही है, जो हमें जीवन के 
हर उतार-चढ़ाव मैं टिके रहने का सामर्थ्य प्रदान करती हैं। जब हम प्रयासों में निरंतरता रखते हैं, और हर दिन कुछ नया करने का
संकल्प करते हैं, तभी हमारे भीतर स्थिरता विकसित होती हैं,
वही स्थिरता धीरे-धीरे हमें आत्मबल प्रदान करती है। कोई कार्य अगर बारम्बार किया जाये, तो वह छोटा ही क्यों न हो, हम उसे कार्य को सहजता से कर पाते हैं, जब किसी भी कार्य को बारंबार करते हैं, तो उसमें हम पारंगत हो जाते हैं, तो यही अभ्यास भीतर एक भरोसे की भावना को जन्म देता है। वह भरोसा ही हमारे व्यक्तित्व की सशक्त नींव बनता है। जीवन में सफलता के साथ ही विफलता भी आवश्यक है, वह भी जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा है। हम हारने के बाद भी  प्रयास  करते हैं वह सही प्रयास हमें और मजबूत बनाते हैं, यही अनवरत चलने की प्रवृत्ति हमें एक विशिष्ट आभा प्रदान करती है। आत्म शक्ति तब उत्पन्न होती है, जब हम स्वयं से संवाद करते हैं, जब हम स्वयं को समझने का प्रयत्न करते हैं, स्वयं से की गई बातें, सच्चे प्रश्न व उनके उत्तर हमें भीतर से निखारते हैं।
      सीखने में समय भी लगता है, पर निरंतरता जारी रहने पर ,
धैर्य उत्साह से ही कोई भीतर के संदेहो को समाप्त कर सकता है।      अपने मानसिक द्वंद्व  से जो व्यक्ति ऊपर उठ जाता है, वह फिर आगे ही बढ़ता है, वही वास्तव में मजबूत बनता है। 
      ईश्वर ने हम सभी को समान चेतना दी है, पर उसे जागृत करने के लिए अभ्यास, संकल्प व सकारात्मक दृष्टिकोण आवश्यक है। 
    जो व्यक्ति अपने प्रयास में ईमानदारी रखता है, उसके मन में सहजता से स्थिरता जन्म लेती है।
     वही स्थिरता समाज व स्वयं के समक्ष हमें दृढ़ बनाती है।

विशेष:- भीतरी मजबूती केवल आत्म चिंतन ,अभ्यास ,।धैर्य व सकारात्मक दृष्टिकोण से ही प्राप्त होती है। स्वयं को स्वीकार करना और स्वयं को सुधारने का निरंतर प्रयास ही हमें संपूर्ण बनाता है।
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद। 


प्रिय पाठक गण,
       सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
 इस देह में विराजित समस्त महा शक्तियों को भी प्रणाम,
आज प्रवाह की इस मंगल में यात्रा में हम फिर से अपने वैचारिक सफर पर हैं। 
         हम देखें जीवन में हमसे कहां पर चूक हो रही है, अगर हमारे साथ में खड़े व्यक्ति भी चूक कर रहे हैं, किसी कारणवश वह कर्तव्य में प्रमाद कर रहे हैं, तो भी हमें ग्रंथ का ही आश्रय लेना चाहिये, या तो हम शाश्वत ग्रंथो का आश्रय ले, अथवा सद्गुरु का आश्रय ले।
         सच्चे सद्गुरु भी वही है, जो अपने शिष्यों को उनकी स्वयं की आत्म शक्ति से परिचित कराते हैं, वह हमें बताते हैं, मनुष्य का जीवन अनमोल व अलौकिक है, इसमें वह सामर्थ्य है, आप जो भी चाहे वह कर सकते हैं। 
        आप पतन का मार्ग भी चुन सकते हैं, ऊपर उठने का भी, 
निर्णय केवल आपका ही है, इसका दोषारोपण हम परिस्थितियों पर, अपने आसपास के वातावरण पर, समाज पर ना डालें, क्योंकि समाज भी तो हम सभी से मिलकर बना है। 
       जब तक स्वबोध को हम जागृत नहीं करते, अपने आंतरिक बल को अपने जीवन का मुख्य आधार बनाये, जैसे ही आप जीवन में किसी से भी जुड़ते हैं, तीन स्थितियां निर्मित होती है। 
       राग, द्वेष व श्रद्धा, राज में व्यक्ति जिससे अपराध होता है, उसके अपराध को भी नहीं देखता, और  द्वेष  में सामने वाले से द्वेष करने लगता है, दरअसल दोनों ही स्थितियां सही नहीं है, अब आती है तीसरी स्थिति, श्रद्धा, अब यह आप किसी के मन में पैदा नहीं कर सकते, यह तो किसी के प्रति किसी की श्रद्धा स्वत: ही
उपजती है।
     जब हमारे मन में किसी के भी प्रति सच्ची आंतरिक श्रद्धा का जागरण होता है, तब समझो, हम अध्यात्म मार्ग पर चल पड़े हैं, 
जब तक हमारे भीतर आंतरिक श्रद्धा का जागरण नहीं होता, 
तब तक जीवन के आध्यात्मिक उत्थान की शुरुआत नहीं होती। 
       हमारी स्वयं के प्रति या किसी और के प्रति आंतरिक श्रद्धा का जागरण होना, यह या तो संत सद्गुरु, ग्रंथ या कोई विवेकवान व्यक्ति ही हमें मार्गदर्शन दे सकता है।
     हमारे जीवन में हमेशा अवसर आता है, जब हमें चयन करना होता है, कौन सी राह पकड़ना है? अगर हम नित्य प्रति प्रभु का 
स्मरण करते हैं, साक्षी भाव से ग्रहण करते हैं, तो वह परमात्मा 
से हमारे लिये मार्ग प्रशस्त करते जाते हैं।
     जीवन में अगर कभी दबाव क सामना करना पड़े, तो हमें व्यक्तियों से ऊपर उठकर ग्रंथ का ही आश्रय ग्रहण करना चाहिये।
क्योंकि ग्रंथ में जो भी वाणी संग्रहऊ किया गया है, वह हमारी आंतरिक चेतना को जागृत करने वाला है। कर्तव्य को जो भी आपने लिया है, वह बिना किसी दबाव के सहज रूप  से जो भी सही हो, वह आपका आंतरिक बोध जिसकी इजाजत दे, आप केवल वही निर्णय करें। 
        ग्रंथ की वाणी अमर है, यानी वह हमें हर युग में प्रेरणा प्रदान करने वाली है, भीतर से जीवंत करने वाली है।
      अभय पद को देने वाली है, प्राणी मात्र का कल्याण जिसमें निहित है।
     साधन जिस दिन हम पर हावी होने लग जाये, पुन:आत्म -निरीक्षण करिये, क्या आवश्यक है? क्या नहीं? आंतरिक शांति 
हमें केवल सत्य मार्ग वह गृंथो चंके बताएं मार्ग पर ही मिल सकता सकती है।
      चिंतन करते रहे, मनन करते रहे, हम अपने किसी भी कर्म के लिये अन्य को उत्तरदायी न ठहराये, स्वयं आत्मनिरीक्षण करें व भीतर से जागृत हो।
परमपिता सभी का कल्याण करें।
विशेष:- राग द्वेष से भी परे एक और बात है, वह  है श्रद्धा चाहे वह हमारी इसी व्यक्ति में हो, शास्त्र में हो, सद्गुणों में हो, मगर यही थोड़ी चूक की संभावना भी है, राग व द्वेष दोनों में ही गलतियां होने की पूर्ण संभावना है, हमें दोनों से ही ऊपर उठकर कर्तव्य क्या करना है, क्या नियमानुकूल है, हम जो कदम उठा रहे हैं, क्या वह सामाजिक हित का संवर्धन कर रहा है ? अगर ,हां तो उसे अवश्य करें, ग्रंथ का आश्य ले, जिस भी ग्रंथ को आप मानते हैं, उसका अनुसरण अवश्य करें, केवल उसे पढ़ने की बजाय आचरण में लाने की कोशिश करें। 
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद
प्रिय पाठक गण,
       सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
    उस परम सत्ता को विनयपूर्वक प्रणाम, जिसने मेरी वाणी में 
साहस उत्पन्न किया, मधुर वाणी व निज कर्तव्य पर टिके रहना 
इतना आसान भी नहीं होता है, यह केवल प्रभु की अनन्य शरणागति मात्र से ही संभव है, अन्य कोई भी दूसरा उपाय है ही 
नहीं, गीता अद्भुत ग्रंथ है, इसके हर पृष्ठ पर श्रीकृष्ण जी की
दुर्लभ वाणी का संग्रह है, जो हर काल में आपका मार्गदर्शन करती है। 
        जो भी नित्य  नियम पूर्वक प्रभु का स्मरण करते हैं, वह उस परमपिता की शरण में अपना सारा कर्म करते है, फिर किसी भी प्रकार के विचलन के लिये कोई जगह ही नहीं है।
       विचलन केवल वहां होगा, जब हम राग में होंगे या फिर द्वेष में होंगे।
      इन दोनों ही स्थितियों से हटकर जब हम स्थितप्रज्ञ हो जाते हैं,
यानी आंतरिक प्रज्ञा में स्थिर हो जाते हैं, तो बाहर कितनी भी तेज आंधियां ही क्यों नहीं चल रही हो, आंधियों से मेरा तात्पर्य बाहरी
परिस्थितियों चाहे वहअनुकूल हो या प्रतिकूल, हमें अपने मार्ग से
विचलित नहीं होने देती।
     जो मनुष्य अपने सहज कम को पूर्ण श्रद्धापूर्वक बगैर अहंकार के निर्वहन करता जाता है, वही उसकी कृपा का पात्र बन जाता है। प्रभु स्वयं ही उसका मार्गदर्शन हर पल करते हैं। उनकी दिव्यता,
दिव्या ग्रंथो में दी गई वाणी सदैव ही उनका मार्गदर्शन करती रहती है।
           अपने मूल कर्तव्य पर पूर्ण श्रद्धा पूर्वक हम दृढ़ रहे, बस इतना ही करें, शेष भार फिर वह सब देख ही रहा है। 
       कितनी भी बड़ी बाधा हो हमारे जीवन में, वह हटेगी ही, समय अनुसार जो भी घटनाक्रम घटना है, वह अवश्य ही घटेगा।
     कर्मफल में ध्यान ना रख कर सहज भाव से आपने जो भी कर्तव्य -कर्म स्वीकार किया है, वह बगैर त्रुटि के करने की हरसंभव कोशिश करें, वह परमात्मा सदैव आपके साथ ही है।
      बस राग व द्वेष दोनों से ही दूर रहे, अन्यथा यह आपके मूल कर्तव्य को बाधित कर सकते हैं। ऐसा होने पर कुछ समय उस
परमात्मा की शरण गृहण करें, फिर बहुत आराम से निर्णय करें, 
आखिर हमको क्या करना है? 
        जीवन जब तक है, तब तक विभिन्न संघर्ष तो जीवन में आएंगे ही, युक्तिपर्वक व वह बुद्धिमानी से हम  समाधान निकाल सकते हैं, संघर्षों से घबराकर हम अपनी सही राह कभी न छोड़े,
आखिरकार वही आपका रक्षण अवश्य करेगी। 
      भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं भागवत गीता में घोषणा की है, सबकी शरण त्याग कर जो मेरी अन्य शरणागति भक्त ग्रहण करेंगे,
उन्हें  अपने आश्रय में सदा ही रखूंगा।
      वह उद्घोषणा कर रहे हैं, यतो धर्म तथो जय।
अर्जुन को भी वे युद्ध लड़ने के लिए प्रेरित करते हैं, वह जीवन संग्राम में हटने के लिए नहीं, वरन अपनी भूमिका को आप सही ढंग से कैसे निभायें, समाज में, परिवार में ,इसका एक उदाहरण देते हैं। 
     हमारे सामने जीवन में जब संशय की स्थिति उत्पन्न हो, मेरी राय मैं भागवत गीता का आश्रय व अनुशरण, हमें सभी प्रकार के श से रहित करता है, वह आत्म बल को बढ़ाने वाला है। 
विशेष:- हर  परिस्थिति में हम अपनी भूमिका का निर्वहन किस प्रकार कर रहे हैं, वह संतुलित है या नहीं, उस पर ही सारी चीजें 
निर्भर होती है। अपना दायित्व पूर्ण ईमानदारी पूर्वक निभाफिर उसे ईश्वरी सत्ता पर छोड़ दे,
"कर्मण्येवाधिकारस्तु, मा फलेषु कदाचन" 
आपकाअपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद।
प्रिय पाठक वृंद,
   सागर प्रणाम,
आप सभी का प्रवाह की इस अद्भुत व मंगलमय यात्रा में स्वागत है। 
हम जीवन में जो भी आचरण कर रहे हैं, वह कभी ना कभी हमें प्रतिफल प्रदान करता ही है। प्रथम आचरण की शुद्धता पर
सर्वप्रथम ध्यान दें।
      संतुलित आचरण ही सर्वाधिक सही है, प्रतिक्रिया हर बात की होगी ही, यह तो इस सृष्टि का अटल नियम है। 
     अगर आपके आचरण में दृढ़ता है, सत्य पालन व नियम पर अगर आप दृढ़ है, तो वह आपकी रक्षा करता ही है।
   हमें हमेशा अपने व्यवहार का आत्मचिंतन अवश्य करना चाहिये, जो भी व्यक्ति अपने जीवन में अपने  प्रति कृतज्ञ नहीं है, वह मित्रता के लायक नहीं, मित्रता हमेशा सोच -समझकर करें।
        आपका वैचारिक तालमेल अगर है, तो ही मित्रता को जारी रखें, अन्यथा नहीं । मित्रता हमेशा उनसे करना चाहिये, जो आपसे हृदय से जुड़ा हो।
         श्रेष्ठ हृदय वाले व्यक्ति ही मैत्री के लायक होते हैं, जो अवसर आने पर आपका साथ निभायें ।
         मित्र केवल उन्हें ही जानिये , जो विपरीत परिस्थितियों होने के बाद भी आपका साथ दे। 
         आज गुरु पूर्णिमा का पावन अवसर भी है, दिन भी गुरुवार का है, उन सभी शिक्षकों को हृदय से प्रणाम, जिन्होंने शिक्षा दी 
वह व्यावहारिक पक्ष भी सिखाया।
       ईश्वर से भी बढ़कर गुरु होते हैं, जो हमें यह सीखाते हैं कि विपरीत स्थिति होने पर भी हमें अपने आचरण की गरिमा को नहीं खोना चाहिये।
     समय तो आता- जाता है, लेकिन मित्रता हमेशा स्थाई होती 
है। धीरज धर्म मित्र अरू नारी आपातकाल परिखेहू चारी।
     इन चारों की परीक्षा  आपत्तिकाल में होती है, इनमें धैर्य व धर्म तो दो निजी गुण है, तथा मित्र जीवन में हम चुनते हैं, मित्रता हमेशा देख- परख कर ही करें, जो आपके हितेषी है, अपनी धैर्यशीलता को कभी न त्यागे, धर्मपथ पर अडिग रहें, सच्चे मित्र मुश्किल से मिलते हैं, उन्हें न खोये।
      आपका स्वयं का आचरण भी मित्रता की कसौटी है, स्वयं हमेशा मित्र का हित  करे, तब वहां से भी पहल वैसी ही होगी।
      अगर आप धैर्यशील हैं, मित्र भी उसी अनुरूप रखें, जो आपका मिजाज से मेल रखते हो। 
     मित्र की कमजोरी अकेले में वह प्रशंसा सबके सामने करें, तो मित्रता सदैव बनी रहेगी। 
   आखिरकार हमारा स्वयं का आचरण ही इसकी मुख्य कसौटी है। अपने आचरण को शुद्ध रखें।
विशेष:- आप अपने व्यवहार में कितने कुशल हैं, चीजे वहीं से पलटती है, व्यवहार कुशल व्यक्ति से सभी की बनती हैं, किसी का नुकसान हो, ऐसा कार्य कभी न करें।
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद।
       

सुप्रभात, 
    प्रिय पाठक गण,
        सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, आज प्रवाह की इस यात्रा में हम
संवाद करेंगे। सत्य के बल पर, जो भी मनुष्य सत्य की शरण में
होता है, उसका सभी आदर करते हैं, फिर चाहे वह आपका घोर विरोधी ही क्यों न हो।
       अगर सत्य बल  को देखा जाये, तो यह सहस्त्र गुना शक्तिशाली आपको आंतरिक तौर पर बनाता है, सत्य को पराजित करने के लिये असत्य बार-बार अपने विभिन्न रूप बदलकर आक्रमण करता है, वह आपको विभिन्न प्रकार के मोह व लालच देता है, उसे समय पर आप अपनी आंतरिक इच्छा शक्ति द्वारा ही उससे बाहर आ सकते हैं, अन्य कोई भी उपाय इसके सिवाय है 
ही नहीं, जो भी मनुष्य प्रभु स्मरण करता है, वह नित्य निरंतर 
चेतला से युक्त होता है, वह सत्ता उसका बराबर रक्षण करती रहती है, जिनके मन मे बैर भाव व दुविधा होती है, वे अपने चित्त  की
मलिनता के कारण स्वयं ही अशांत चित होते हैं।
         और जो भी अशांति है, उसका मूल कारण हमारी वैचारिकता है, हम क्या सोच रहेहै? क्या कर रहे हैं? हमारे विचार व व्यवहार में अंतर ही आखिरकार हमारी अंतर्वेदना का कारण बनता है। 
        इस संपूर्ण विश्व में कोई भी ऐसी शक्ति नहीं, जोश परमपिता से बड़ी हो, जो नित्य उन्हें वंदन व प्रणाम करते हैं, अहो भाव से वंदना करते हैं।
       वह परमपिता परमेश्वर निश्चित ही परमभक्ति के आधीन है,
कल्याणकारी तत्व जो है, वह केवल प्रभु की अनन्य शरणागति ही 
 है।
      जो भी मनुष्य उस परमपिता की अन्य शरणागति में होते हैं, 
वह सभी प्रकार के मानसिक दोषों से धीरे-धीरे हटते जाते है,
उनकी कृपा व वरद- हस्त सदैव उस देह पर रहता है।
        संसार में अपने निश्चय पर अडिग रहने की जो मूल शक्ति है,
वह केवल उस परमपिता परमात्मा की शरण से ही मिलती है,
जीवन में कोई भी अन्य उपाय है ही नहीं। 
      अगर हम उसे सत्य की शरण है, तो निर्भय होकर अपनी बात को कह सकते हैं, अन्यथा हम भीतर ही भीतर अनावश्यक रूप से डरते रहेंगे। 
    उसे परमात्मा का स्मरण करके साहस पूर्वक जीवन में फैसले 
करिये, वह निश्चित ही आपके साथ है। 
    सावधानी पूर्वक संपूर्ण परिदृश्य का गहराई से अवलोकन करते रहे, फिर आप कभी भी किसी प्रकार के संकट में नहीं आयेंगे।
     सत्य का अनुसरण सदैव करिये, आज भी सहस्त्र सूर्यो की ऊर्जा  सत्यवान व्यक्ति में होती है, बगैर किसी से डरे निर्भयता पूर्वक अपनी बात को कहना ही उसे ईश्वर के निकट होना है।
     विशेष:- सत्य कहने से कभी न हटे , आखिरकार वह सत्य ही आपका रक्षण अवश्य करेगा, परिस्थितियों कितनी भी विपरीत ही क्यों ना हो, सत्य पर अडिग रहे, सत्य बल की ताकत बहुत बड़ी है,
जो व्यक्ति सदैव सत्य का अनुसरण करते हैं, वह आंतरिक रूप से
दृढ़ निश्चयी होते हैं, उन्हें कभी किसी प्रकार का छल नहीं करना पड़ता है।
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद