कर्मयोग

प्रिय मित्रो, बुजुर्गो, युवाओ, मातृशक्ति को सादर वंदन, प्रवाह में आज आपको हमारे सर्वकालीन ग्रंथो में से एक
"श्रीमद्भगवतगीता" का आश्रय ले कर कर्मयोग शब्द की महत्ता व उस पर प्रकाश डालने का एक प्रयास कर रहा
हूँ।

dharmashetre kurushetre


 गीताजी के प्रथम अध्याय का श्लोक 

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।।

इस संस्कृत श्लोक का हिंदी अर्थ अगर थोड़ा गहराई से विवेचन करे, पहले शब्द उच्चारित हुआ है "धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे " अर्थात यहाँ धर्मक्षेत्र शब्द का शुरुआत में प्रयोग यह दर्शाता है की जीवन में हम किसी भी कार्य को करते है, तो वह धर्मसम्मत अवश्य होना चाहिए।

मान लीजिये आपका अपना परिवार है, आपकी आजीविका का जो भी आश्रय आप लेते है, उस पर अगर आप श्रद्धा, भक्तिपूर्वक परिश्रम करते है, धर्मानुकूल व्यवसाय में आचरण करते है तो उसकी शुरुआत भले ही धीमी हो सकती है पर समय के साथ वह स्थायी दृढ़ता लाती है और आपकी व्यवसाय में एक साख निर्मित होती है। जो आप अपने स्वयं के आचरण से प्राप्त करते है।

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे अर्थात धर्मयुक्त या धर्म के लिए लड़ा गया संग्राम कई बार आवश्यक भी हो जाता है। तब हमे मोह का आश्रय न लेकर अपने कर्तव्य-पथ का ही आश्रय लेना चाहिए।

एक नारी व गृहिणी का कर्तव्य बालक को उच्च विचारो से परिपूर्ण व्यक्तित्व के रूप में गड़ना होता हैं। यह एक नारी का दायित्व भी होता है की वह अपने परिवार व देशहित में एक सबल व्यक्तित्व के रूप में अपनी संतान को शिक्षा-दीक्षा प्रदान करे। अपने स्वधर्म, परिवार-धर्म, समाज-धर्म की उसे प्रेरणा प्रदान करे।

अगर सभी अपने अपने परिवार में यह कार्य प्रारम्भ करते है तो निश्चित मानिये आप परिवार का, समाज का आप एक बहुत बड़ा कार्य करेंगे। कोई जरूरी नही आप कोई बहुत बड़ा कार्य ही हाथ में ले। जो भी कार्य आप अपने हाथो में ले उसे पूर्णरूपेण श्रद्धा से करे। ईश्वर अपने आप ही आपको सही फल प्रदान करेंगे।

कर्मयोग का आश्रय लेना हमे गीताजी सिखाती है। एक छात्र के लिए उसका स्वधर्म उसकी शिक्षा है, एक गृहिणी के लिए स्वधर्म परिवार का पालन पोषण है। एक पिता के लिए स्वधर्म अपने परिवार की आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा है। एक परिवार का धर्म अपने परिवार की सुरक्षा व सामाजिक मूल्यों का निर्वहन है।

एक राष्ट्राध्यक्ष का कर्म सम्पूर्ण नागरिको की सुरक्षा है, एक ज्ञानवान का कर्म अपने ज्ञानबल से समाज को सही दिशा प्रदान करना है।

इस प्रकार सभी को अपना अपना स्वधर्म पहचानकर द्रढ़तापूर्वक उत्साह से उसमे लग जाना चाहिए व कर्मफल की चिंता उस परमपिता पर छोड़ देना चाहिए। आप ऐसा अपने जीवन में करके देखे, आप स्वयं तो नई ऊँचाइयों को प्राप्त करेंगे औरो के लिए भी प्रेरणा का स्त्रोत बनेंगे।

शुरुआत में जो श्लोक गीताजी में उच्चारित हुआ है, धृतराष्ट्र जी पूछ रहे है, धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित हुए युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुत्रो ने क्या किया। यहाँ उनके श्रीमुख से भी  धर्म भूमि शब्द का उच्चारण पहले हुआ है।  यानी  गीता जी धर्म, कर्म के अवलंबन का ग्रंथ है, जोकि हर काल में आपको दिशा बोध प्रदान करता रहता है।


यहां अधिक व्याख्या में न पढ़कर इस पर ध्यान दिलाना चाहता हूं कि धर्म को यानी स्वधर्म का पहचानना आवश्यक है।  छात्र का धर्म ज्ञान प्राप्ति है। ग्रहस्थ का धर्म परिवार का लालन-पालन है। मातृशक्ति का धर्म संतान को उचित शिक्षा व सन्मार्ग पर प्रेरित करना है। एक संतान या पुत्र पुत्री का धर्म अपने बुजुर्गों के दिशा निर्देशों का पालन करना है।

स्वत: ही एक सुखी समाज का निर्माण होने लगेगा।

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