प्रिय पाठकों,
आज प्रवाह में आपसे चर्चा उत्तरदायित्व विषय पर, जब हमें प्रकृति की ओर से सभी चीजें निशुल्क प्राप्त हुई है, तब क्या उसका समुचित संवर्धन व विकास करना हमारा उत्तर दायित्व नहीं है।
जब तक हम स्वयं विचारपूर्वक इन बातों को ग्रहण नहीं करते, क्या स्थिति में बदलाव अपने आप ही आ जाएगा।
यह स्थिति तो अकर्मण्यता की होगी, जिसे तो भगवान कृष्ण ने गीता में भी नकार दिया है व अपना अपना कर्तव्य ईमानदारी पूर्वक करने का संबोधन उन्होंने अर्जुन को संबोधित करते हुए हम सभी को दिया।
आज क्या कारण है विभिन्न प्रकार के पंथो और संप्रदायों के उदय के बाद भी मानवीय मूल्य का पतन हो रहा है, संवेदनाएं मर रही है।
यंत्रवत जीवन जीने से वह भार रूप हो गया है। हम सभी का यह सामूहिक उत्तरदायित्व होना चाहिए, हम अपनी संस्कृति को समझें, उसके रहस्य को समझ कर संपूर्ण मानव जाति के उत्थान हेतु उनका प्रचार-प्रसार भी करें।
उसका कारण यह है कि हम सभी आपस में सृष्टि क्रम में किसी न किसी रूप में आपस में जुड़े हुए हैं व सामाजिक व बौद्धिक होने के कारण यह उत्तरदायित्व हम पर और अधिक आ गया है।
प्रबुद्ध जनों का उत्तरदायित्व है वह अपने ज्ञान व अनुभव के आधार पर समाज को एक नई दिशा दें।
यह उनका उत्तरदायित्व भी है, जो कि समाज से हमें मिला है। मान, सम्मान, यश वह हमें समाज को फिर लौटाना भी चाहिए।
जिनके पास ज्ञान है वह ज्ञान से, जिनके पास धन है वह धन से, जिनके पास संस्कार है वह उसका सही तरीके से प्रचार प्रसार करके अपने उत्तरदायित्व का वहन करें।
जिनके पास ज्ञान है वह ज्ञान से, जिनके पास धन है वह धन से, जिनके पास संस्कार है वह उसका सही तरीके से प्रचार प्रसार करके अपने उत्तरदायित्व का वहन करें।
सामाजिकता का तकाजा भी यही है हमें अपने समाज के प्रति उत्तरदायित्व को समग्र रूप से समझना होगा, अन्यथा भावी पीढ़ी को हम क्या विरासत में देकर जायेंगे।
हमें अपनी संस्कृति के महत्वपूर्ण गुणों को स्वयं में आत्मसात करते हुए उन्हें भी अभिप्रेरित करना होगा।
इति शुभम भवतु।
आपका अपना।
प्रवाह में शेष अगले लेख में।
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