सादर नमन,
आप सभी को मंगल प्रणाम,
मुझे पूर्ण विश्वास है, आप सभी को मेरे द्वारा लिखित लेख, जो लिखना होकर आपसी संवाद है, पसंद आ रहे होंगे।
आज का हमारा विषय है, विश्व परिवार दिवस, तो चलिए चलते हैं आज के सफर पर, इस माह की 15 तारीख को विश्व परिवार दिवस मनाया जा रहा है, यह अभी-अभी चलन हुआ है,
की विभिन्न विषयों पर किसी विशेष दिन को हम किसी दिवस के नाम से संबोधित करने लगे हैं।
अब विश्व परिवार के बारे में हम भारतीय संस्कृति का अवलोकन करते हैं, क्या कहती है? हमारी अपनी संस्कृति,
हमारी संस्कृति में एक वाक्य है"वसुधेव कुटुंबकम" यानी संपूर्ण विश्व यह भूमंडलपर रहने वाले समस्त प्राणी जो भी है, सभी एक परिवार है।
हमारी प्राचीन संस्कृति में तो पहले से ही संपूर्ण विश्व को एक परिवार ही माना गया है।
पहले हमारे यहां संयुक्त परिवार होते थे, संगठन होता था,
अब यह परिपाटी धीरे-धीरे हट रही है।
यह संपूर्ण विश्व आपस में जुड़ा हुआ है, पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, वायु यह पांच तत्व संपूर्ण विश्व में व्याप्त हैं, व यह सभी का समान रूप से पोषण करते हैं , मनुष्य मात्र में किसी भी प्रकार का भेड़ कभी प्रकृति ने किया ही नहीं, वह तो सर्वत्र सबको समान रूप से उपलब्ध है, मनुष्य ही नहीं, वरन् पृथ्वी पर रहने वाले अन्य वन्य जीव, जल में रहने वाले जलचर, आकाश में विचरण करने वाले प्राणी, छोटे से छोटे जीव जंतु यह सभी कहीं न कहीं आपस में एक सामंजस्य द्वारा जुड़े हुए हैं।
मनुष्य में सबसे अधिक बुद्धिमत्ता होने के कारण वह हर प्रकार की योनि से श्रेष्ठ है, वह चाहे तो निर्माण कर सकता है, वह चाहे तो ध्वंस, मनुष्य की प्रज्ञा जागृत होने पर वह निर्माण की ओर ही जायेगा, प्रकृति ने एक दिव्य सतुलन अपने आप ही रच रखा है, जिसे हम केवल अपने निजी स्वार्थ के कारण समझ नहीं पाते हैं,
मनुष्य का अत्यधिक लालच वह प्रकृति द्वारा प्रदत्त उपहारों का
अंधाधुंध दोहन , उनके संरक्षण की दिशा में सही कदम ना उठाना,
इन सब के कारण जो क्षति हो रही है, उसका एकमात्र उपाय हमें प्रकृति से सामंजस्य स्थापित करना होगा , जितना हम उससे लेते हैं, क्या हम पुनः उसे प्रदान करते हैं, हमें भूमि पर वृक्षारोपण अनिवार्य रूप से करना ही चाहिये व जो भी वृक्ष है उन्हें बचाना
और वृक्ष लगाना यहां पर्यावरण की दृष्टि से भी अत्यंत आवश्यक है। हमें इस प्रकार की जीवन शैली को अपनाना होगा , जहां सभी एक दूसरे के पूरक के रूप में काम करें, केवल भौतिकवाद की बहुत अधिक मात्रा विश्व को विनाश की और अग्रसर कर सकती है, हमारी प्राचीन सभ्यता का अगर हम अध्ययन करें, तो वहां हमें सभी तत्वों का पूजन व उनके संरक्षण का भाव शुरू से ही विद्यमान रहा है, हमारी संस्कृति "वसुधैव कुटुंबकम" की रही है,
हम इसके मंत्रो भी अगर देखते हैं, तो संपूर्ण विश्व के मंगल का भाव उनमें छुपा हुआ है।
" सर्वे भवंतु सुखिन, सर्वे संतु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मां कश्चित दुख भाग भवेत "
इसमें यह कामना की गई है, सब सुखी हो, सब निरोगी हो,
सब भद्र हो, यानी सब की एक दूसरे के प्रति मंगल भाव की कामना हो व वैसा ही आचरण हो, कोई भी संसार में दुखी ना हो,
ऐसी मंगल भाव से हमारी संस्कृति ओत-प्रोत है, आश्चर्य तो इस बात का है , हमारी संस्कृति में इतने मंगलमय भाव होते हुए भी
हम ही हमारी संस्कृति की मूल अवधारणा से सही तरीके से परिचित नहीं हैं, इतना सुंदर दर्शन क्या किसी अन्य संस्कृति में हमें देखने को मिलता है।
केवल भारतीय संस्कृति में ही संपूर्ण विश्व को एकजुट रखने
का मूल भाव छुपा हुआ है, हमारी संस्कृति सदैव सामंजस्य वह साहचार्य की रही है, हमें हमारी संस्कृति पर पूर्ण गर्व होना चाहिये, इसमें संपूर्ण विश्व की भलाई के सारे सूत्र विद्यमान है।
हमारी संस्कृति में एक शब्द है देवता, देवता यानी देने वाले,
तो हमारे पंच तत्वों को भी देने वाली प्रवृत्ति होने के कारण देव ही माना गया है।
हमारी संस्कृति दैवीय संस्कृति है, जो केवल देना जानती है,
संपूर्ण विश्व को शांति का संदेश, आपस में मिलकर रहने का संदेश
अगर किसी संस्कृति ने सर्वप्रथम दिया है, तो हमारी प्राचीन संस्कृति ही है।
आप देखेंगे हमारे जितने भी देव-स्थान है, वे या तो पहाड़ों पर है, यह नदियों के किनारे, प्राचीन काल में तो शिक्षा भी वनों में गुरुकुलों में होती थी, इस प्रकार हम अध्ययन करें तो तो पायेंगे,
कि हमारे प्राचीन ऋषि मुनि कितने विद्वान थे, उन्होंने उसे समय ही प्रकृति से साहचार्य की भावना के कारण तीर्थ क्षेत्रों का निर्माण
पहाड़ों व नदियों के किनारे किया, ताकि पहाड़ों व नदियों का भी संरक्षण हो सके, ऐसी सुंदर विचारधारा वाली संस्कृति को छोड़कर इसमें संपूर्ण विश्व के मंगल का ही भाव छुपा है, हमेशा की अन्य संस्कृतियों को अपनाते जा रहे हैं, हमारी जो मौलिक संस्कृति है,
वह "सादा जीवन ,उच्च विचार की रही है" , वह जो मूल भाव हमारी संस्कृति का है, उसे दर्शन को छोड़कर हम प्रदर्शन में व्यस्त हो गये, तो जहां मूल दर्शन विद्यमान हैं, वहां आज भी किसी प्रकार की कोई कमी नहीं मिलेगी, क्योंकि वहां सामंजस्य व सहचार्य की भावना निश्चित ही होगी ।
विश्व परिवार दिवस यह दिवस मनाने की अवधारणा तो अभी आई है, हमारी प्राचीन संस्कृति में चाहिए मूल भाव शुरू से ही विद्यमान रहा है और इसीलिए हमारी संस्कृति अभी तक नष्ट भी नहीं हुई, क्योंकि इसकी मूल अवधारणा को यहां का जन-जन पहचानता है वह उससे मजबूती से जुड़ा हुआ है। हमारी संस्कृति में वह सब विद्यमान है, जो बाहर से हमें मिलता है, पर बड़े ही आश्चर्य का विषय है, विदेशी लोग हमारी संस्कृति की ओर आकर्षित हो रहे हैं और हम भारतीय ही अपनी संस्कृति की मूल अवधारणा को भूलते जा रहे हैं।
सभी को विश्व परिवार दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं,
मेरा इस लेख को लिखने का उद्देश्य यह है कि हमारी संस्कृति पूर्णतः वैज्ञानिक अवधारणा पर बनी हुई है, इसमें सभी के मंगल की कामना भी की गई है वह किस प्रकार से हमें यज्ञ आदि द्वारा
उसको चैतन्य रखें, यह भी हमारी संस्कृति में बताया गया है।
ऐसी महान संस्कृति में जन्म लेने पर हम सभी को गर्व होना चाहिये, इसमें ज्ञान- विज्ञान का जो प्रयोग बताया गया है, वह सृष्टि का कल्याण किस प्रकार हो, हमारे प्राचीन ग्रंथो में उसकी सुंदर सब विधि भी बताई गई है।
विशेष:- मेरा विनम्र निवेदन उन महानुभावों से है, जिन्होंने हमारी प्राचीन संस्कृति का अध्ययन ही नहीं किया व बगैर सही अध्ययन के , वे इसके विरोध में खड़े हो जाते हैं, अगर आप हमारी मूल संस्कृति का सही अध्ययन करें तो पाएंगे यह विश्व के सर्वांगीण विकास की और ही संकेत करती है, पर बात इसे पूर्ण ईमानदारी से अपनाने की है।
आपको अपना
सुनील शर्मा
जय भारत
जय हिंद
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