साक्षी- भाव

प्रिय पाठक गण,
       सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
 इस देह में विराजित समस्त महा शक्तियों को भी प्रणाम,
आज प्रवाह की इस मंगल में यात्रा में हम फिर से अपने वैचारिक सफर पर हैं। 
         हम देखें जीवन में हमसे कहां पर चूक हो रही है, अगर हमारे साथ में खड़े व्यक्ति भी चूक कर रहे हैं, किसी कारणवश वह कर्तव्य में प्रमाद कर रहे हैं, तो भी हमें ग्रंथ का ही आश्रय लेना चाहिये, या तो हम शाश्वत ग्रंथो का आश्रय ले, अथवा सद्गुरु का आश्रय ले।
         सच्चे सद्गुरु भी वही है, जो अपने शिष्यों को उनकी स्वयं की आत्म शक्ति से परिचित कराते हैं, वह हमें बताते हैं, मनुष्य का जीवन अनमोल व अलौकिक है, इसमें वह सामर्थ्य है, आप जो भी चाहे वह कर सकते हैं। 
        आप पतन का मार्ग भी चुन सकते हैं, ऊपर उठने का भी, 
निर्णय केवल आपका ही है, इसका दोषारोपण हम परिस्थितियों पर, अपने आसपास के वातावरण पर, समाज पर ना डालें, क्योंकि समाज भी तो हम सभी से मिलकर बना है। 
       जब तक स्वबोध को हम जागृत नहीं करते, अपने आंतरिक बल को अपने जीवन का मुख्य आधार बनाये, जैसे ही आप जीवन में किसी से भी जुड़ते हैं, तीन स्थितियां निर्मित होती है। 
       राग, द्वेष व श्रद्धा, राग में व्यक्ति जिससे अपराध होता है, उसके अपराध को भी नहीं देखता, और  द्वेष  में सामने वाले से द्वेष करने लगता है, दरअसल दोनों ही स्थितियां सही नहीं है, अब आती है तीसरी स्थिति, श्रद्धा, अब यह आप किसी के मन में पैदा नहीं कर सकते, यह तो किसी के प्रति किसी की श्रद्धा स्वत: ही
उपजती है।
     जब हमारे मन में किसी के भी प्रति सच्ची आंतरिक श्रद्धा का जागरण होता है, तब समझो, हम अध्यात्म मार्ग पर चल पड़े हैं, 
जब तक हमारे भीतर आंतरिक श्रद्धा का जागरण नहीं होता, 
तब तक जीवन के आध्यात्मिक उत्थान की शुरुआत नहीं होती। 
       हमारी स्वयं के प्रति या किसी और के प्रति आंतरिक श्रद्धा का जागरण होना, यह या तो संत सद्गुरु, ग्रंथ या कोई विवेकवान व्यक्ति ही हमें मार्गदर्शन दे सकता है।
     हमारे जीवन में हमेशा अवसर आता है, जब हमें चयन करना होता है, कौन सी राह पकड़ना है? अगर हम नित्य प्रति प्रभु का 
स्मरण करते हैं, साक्षी भाव से ग्रहण करते हैं, तो वह परमात्मा 
 हमारे लिये मार्ग प्रशस्त करते जाते हैं।
     जीवन में अगर कभी दबाव क सामना करना पड़े, तो हमें व्यक्तियों से ऊपर उठकर ग्रंथ का ही आश्रय ग्रहण करना चाहिये।
क्योंकि ग्रंथ में जो भी वाणी संग्रह किया गया है, वह हमारी आंतरिक चेतना को जागृत करने वाला है। कर्तव्य को जो भी आपने लिया है, वह बिना किसी दबाव के सहज रूप  से जो भी सही हो, वह आपका आंतरिक बोध जिसकी इजाजत दे, आप केवल वही निर्णय करें। 
        ग्रंथ की वाणी अमर है, यानी वह हमें हर युग में प्रेरणा प्रदान करने वाली है, भीतर से जीवंत करने वाली है।
      अभय पद को देने वाली है, प्राणी मात्र का कल्याण जिसमें निहित है।
     साधन जिस दिन हम पर हावी होने लग जाये, पुन:आत्म -निरीक्षण करिये, क्या आवश्यक है? क्या नहीं? आंतरिक शांति 
हमें केवल सत्य मार्ग व गृंथो में बताएं मार्ग पर ही मिल  सकती है।
      चिंतन करते रहे, मनन करते रहे, हम अपने किसी भी कर्म के लिये अन्य को उत्तरदायी न ठहराये, स्वयं आत्मनिरीक्षण करें व भीतर से जागृत हो।
परमपिता सभी का कल्याण करें।
विशेष:- राग द्वेष से भी परे एक और बात है, वह  है श्रद्धा ,चाहे वह हमारी  व्यक्ति में हो, शास्त्र में हो, सद्गुणों में हो, मगर यही थोड़ी चूक की संभावना भी है, राग व द्वेष दोनों में ही गलतियां होने की पूर्ण संभावना है, हमें दोनों से ही ऊपर उठकर कर्तव्य क्या करना है, क्या नियमानुकूल है, हम जो कदम उठा रहे हैं, क्या वह सामाजिक हित का संवर्धन कर रहा है ? अगर ,हां तो उसे अवश्य करें, ग्रंथ का आश्रय ले, जिस भी ग्रंथ को आप मानते हैं, उसका अनुसरण अवश्य करें, केवल उसे पढ़ने की बजाय आचरण में लाने की कोशिश करें। 
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद

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