प्रकृति खुश हैं

आज मनुष्य परेशान हैं,
       ‌ ‌‌‌प्रकृति खुश है।
हम मनुष्य अपने स्वार्थ की परिधि से ही हटते नहीं  
       ‌ नतीजा सामने है, फिर भी हम संभलते नहीं।
मनुष्य परेशान हैं, प्रकृति खुश हैं।
         उसे भी अब विराम मिला है, उसकी भी थकान उतरी है।
         पंछी आकाश में उन्मुक्त होकर विचरण करते हैं,
एक अलग सी ही खामोशी है प्रकृति में।
          वह परम शांत है, आनंदित होकर वृक्ष भी ले रहे सांस है।
      ‌‌‌‌  मानव निर्मित कार व अन्य वाहनों से निकलता प्रदूषण थमा है,
       प्रकृति खुश है ,कुछ तो शोर थमा है।
समय अब आ गया है, सहेजे अब हम अपने पर्यावरण को।
        केवल अपनी परवाह न करें पर्यावरण की भी परवाह करें,
       हो सकता है मेरी यह काव्य रचना कुछ लोगों को रास ना आए।
     कोरोना की विभीषिका व डर के साए में शायद हम सोच ना पाए,
      मगर कड़वा सच यही है।
यह मानव निर्मित त्रासदी ही है, अंधाधुंध प्रकृति के दोहन से वह नाराज है।
     संरक्षण उसका होता नहीं, कागजों पर परियोजनाएं बनती है।
    वक्त है, अभी संभल जाए इंसान,
बाज आये अपनी हरकतों से, प्रकृति से जितना ले,
     उतना वापस देने की भी कोशिश करें।
प्रकृति खुश है, उसे भी अब विराम मिला है।
    आइए, सहेजें अपनी विरासत को, उसे हमने प्रकृति को यानी पृथ्वी को भी मां का दर्जा हमने दिया,
    ‌‌‌‌  नदियों को मां माना है,
वृक्षों की पूजा हम करते हैं, हमारी इस सनातनी संस्कृति को फिर पुनर्जीवित कर जाना है।
      ईमानदारी से इसे अपनाएं, जहां पर भी हम रहे,
प्रकृति का संरक्षण अवश्य करें।
    प्रकृति खुश है, उसे अब विराम मिला है।

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