समरसता

प्रिय पाठक गण, 
         सादर नमन, 
समरसता किसी भी शब्द समाज का सबसे महत्वपूर्ण अंग है,
समरसता का गहन व व्यापक अर्थ यह है  कि समाज में विभिन्न विचारधाराओं, विभिन्न पंथों वह तमाम तरह की विभिन्नताओं के
बाद भी समरसता समाज में किस प्रकार कायम रहे।
            समाज में आज जो चलन है, हमारा पथ सर्वश्रेष्ठ है, 
निश्चित यह गर्व का विषय है, होना भी चाहिये, पर इससे हमें दूसरे पंथ या अन्य मतावलंबियों को बड़ा या गलत कहने का हक नहीं प्राप्त हो जाता है।
          यह तो स्वतंत्रता के अधिकार का दुरुपयोग ही है। हम इतिहास से भी अगर सबक ले तो राजा राम नहीं ,वनवासी राम कहूंगा वह रावण को राजा रावण कहूंगा,, क्योंकि शक्तियों के मामले में रावण के पास भी बहुत अधिक शक्तियां थी, लेकिन उन शक्तियों का अहंकार ही रावण को  गलत दिशा की और ले गया।
           यह जो अहंकार है, चाहे वह राजा में हो, ज्ञानी में ज्ञान का हो, सिद्ध पुरुष में सिद्धि का हो, अधिकारी वर्ग में अधिकार का अहंकार हो, अगर सब कुछ होने के बाद भी अहंकार का समावेश हो गया  तो समझो व्यक्ति का पतन उसी समय से प्रारंभ हो जाता है ।
            हमारे समाज के हर क्षेत्र में जो नैतिक पतन का क्षरण है, 
वह हमारी सामाजिक समरसता में सबसे बड़ा बाधक है, जब तक हम अपने विवेक से इसे दूर नहीं करते, हमारे जीवन में बाधाऐं बनी ही रहेगी, हम हम मंथन  करें, तभी ही स्व- विवेक से हम आचरण कर सकते हैं।
           हमारे आचरण की कंपनी व करनी में अंतर ही हमें पतन की और ले जाता है।
             अहंकार हममें हो तो हम रावण वह विनम्रता हो तो राम बन सकते हैं, यह हमारे आचरण पर निर्भर है, सबके प्रति सहृदयता  व विनम्रता व्यक्ति को राम बना देती है, यहीं पर राम की विलक्षणता है, उनक यह अद्भुत सशक्त व्यक्तित्व ही उन्हें औरों से अलग करता है। 
        वह किसी के विरोधी है ही नहीं, वे तो जो सामाजिक समरसता के जो  खिलाफ  है, उन कृत्यों के विरोधी है।
           यहां राम का असली व्यक्तित्व भी है, उनके साथ वानर, भालू, वनवासी व उपेक्षित वर्ग, वंचित वर्ग, शोषित वर्ग जो था, उनके व्यक्तित्व की गरिमा के कारण उनसे जुड़ता है, यह उनके प्रबल व्यक्तित्व की ही महिमा है। 
            समरसता किस प्रकार कि वह अपनी माता कैकेई को भी क्षमा करने का साहस रखते हैं, जिसने उन्हें 14 वर्ष का वनवास प्रदान किया। 
              समरसता का क्या इससे बड़ा उदाहरण हमें प्राप्त हो सकता है। हमारे धर्म ग्रंथ हमें यह सिखाते हैं , राम क्रोध भी करते हैं, पर वे समाज हित में सात्विक क्रोध करते हैं।
             जैसे पहले समुद्र से विनय वह न सुनने पर तीर से प्रहार करने के लिए तैयार होते हैं।
              इसी प्रकार आज सामाजिक समरसता अगर भंग हो रही है, तो व्यक्तिगत स्वार्थ, हमारी राजनीति का गिरता स्तर व गहन अध्ययन की कमी होना है।
          यह सत्य है कि हमारे समाज को शक्तिशाली अवश्य बनाना चाहिये, पर साथ ही नीतिगत अंकुश भी होना चाहिये।
         याद रखें, मूल्यहीन समाज उस बिगड़ैल हाथी की तरह हो सकता है, जिस पर महावत का उचित अंकुश न हो, इसलिए निरंकुश स्वभाव पर अंकुश लगाना भी जरूरी है। 
           रावण ने अपने पास जो भी शक्तियों उसे प्राप्त थी, उनका दुरुपयोग किया वह अंतत उसे परास्त होना पड़ा। 
          इसीलिये समाज में जो छद्म  वेश धारी है , रावण कै से जिनके आचरण है , उनकी जयकार हो रही है, यह दोहरा चरित्र 
समाज को किस और लेकर जा रहा है, चिंतन का विषय है। 
       किसी भी समाज में जब एक छद्म  आवरण स्थापित हो जाता है, तो सही तथ्य  सारे दब जाते हैं ।
          समरसता हमारे समाज का एक अभिन्न अंग रही है, जो कोई भी सामाजिक समरसता में सहयोग करता है, वह दरअसल सच्चा देशभक्त है व देश हित में ही कार्य कर रहा है।
          हम आजादी के आंदोलन पर भी नजर डालें तो सभी ने मिलकर अंग्रेजों का मुकाबला किया था। 
        उसके बाद इतिहास में हम सन 1977 मेंजयप्रकाश नारायण जी को देखते हैं, जिन्होंने क्रांति का बिगुल अपने हाथ में लिया, तब भी सब ने मिलकर इसका मुकाबला किया। 
         समाज में आज जो वातावरण है , क्या वह सामाजिक समरसता की दृष्टि से उचित है, हम हमारे वर्तमान परिदृश्य का 
सही अवलोकन अगर करें, तो मात्र भौतिक समृद्धि तो बेतहाशा 
बड़ी है, पर मानसिक अशांति भी साथ में बड़ी है।
          हम इसके मूल कारण को अगर खोजें तो पाएंगे कि आज से पन्द्रह वर्ष हमारे समझ में आपसी भाईचारे को , संबंधों को 
अधिक महत्व दिया जाता था, जिसका अब अभाव होता जा रहा है, सामाजिक सोहार्द का जो वातावरण था, विगत वर्षों में दर्शन की जगह प्रदर्शन ने स्थान ले लिया है।
          हमारे धर्म का मूल तत्व समाप्त हो गया है, जबकि हमारा सनातन धर्म भी उद्घोष करता है। 
          सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे संतु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मां कश्चित दुख भाग भवेत।
         जिसका सही भावार्थ है, सब सुखी हो, सभी निरोगी हो,
जितने भी भद्र आचरण वाले हैं, जिनके आचरण में संयम है, वे सुखी रहे, उन्हें किसी प्रकार का दुख न हो।
          जब भी सत्य धर्म का लोप होता है, समाज की हानि होती है,   निडरता पूर्वक सत्य बोलने का साहस मूल प्रजातंत्र की पहली आवश्यकता है।
        आश्चर्य इस बात का है कि हम युवा पीढ़ी का मार्गदर्शन करने की बजाय उनमें अंधानुकरण की प्रवृत्ति डाल रहे हैं, जब तक धर्म व धर्मांधता का फर्क नहीं समझेगी, यह राष्ट्र पतन की और जायेगा।
           जहां पर भी हमें कथनी व करनी में भेद दिखाई दे, हमें मुखर होना चाहिये, अन्यथा समाज के प्रति हम सही दायित्व की अनदेखी करेंगे।
        जब चारों ओर परिदृश्य धुंधला हो, हमें अपने धर्म ग्रंथो का पुनः अध्ययन करना चाहिये।
         मुझे गीता की सर्वश्रेष्ठ इसलिये लगती है कि इसमें श्री कृष्णा अन्याय के खिलाफ अपने ही परिजनों को भी माफ नहीं करते हैं, उनका पूरा जीवन चरित्र संघर्षमय रहा है, पर जो समाज के हित में है, वे चारों नीति में से जिसका भी प्रयोग आवश्यक हो, वह करते हैं।
            समय अनुकूल किस समय में क्या उचित है, सामाजिक समरसता कायम रखने में कब किस नीति का प्रयोग किस प्रकार किया जाता है, यहां हम भगवान श्री कृष्ण के चरित्र में देखते हैं। 
 
विशेष:-कुल मिलाकर मेरे कहने का तात्पर्य यह है की सामाजिक समरसता ही मानवीय संवेदनाओं को देखते हुये मूल स्वरूप होना चाहिये, जहां  जिस भी नीति का प्रयोग हो, उसका उद्देश्य सामाजिक समरसता ही होना चाहिये।
आपका अपना, 
सुनील शर्मा 
जय हिंद, 
जय भारत।



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