समसामयिक (संविधान में धर्मनिरपेक्ष व समाजवाद)

प्रिय पाठक गण,
   सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम,
  प्रवाह की धारा नित्य बहती रहे, हम सजग हो, सजग रहे व
सजग करें, यही मूल भाव इस प्रवाह का है, 
       प्रवाह का अर्थ ही है, नित्य प्रवाहमान, आज का विषय है, 
संविधान पर जो नई बस जन्म ले रही है, धर्मनिरपेक्षता व समाजवाद।
      अगर पहले हम इन दो शब्दों का अर्थ समझे, धर्मनिरपेक्षता 
यानी किसी भी धर्म का विशेष न करते हुए सभी धर्म का समान रूप से आदर करना, जो कि हमारे संविधान का मूल स्वरूप भी है,
हमारे देश में बहुभाषी, बहुआयामी प्रकृति के नागरिक निवास करते हैं, उन सभी को समान रूप से पोषण करना, दूसरा शब्द है समाजवाद, समाजवाद में हम समाजवाद शब्द का अर्थ समझे 
सम +आज= समाज , यानी इसमें भी सभी की समानता की बात कही गई है, किसी भी देश के राजनीतिक नेतृत्व का  यह दायित्व है, अगर संविधान को बल प्रदान करने के लिये कोई संशोधन अगर किया भी गया है, वह संविधान को और बल अगर प्रदान कर रहा है, तब इसका विरोध क्यों? 
         अब आते हैं, सनातन धर्म की मूल व्याख्या पर, जरा देखें 
वह क्या कहती है? हमारी संस्कृति में एक श्लोक है " सर्वे भवंतु सुखिन: , सर्वे संतु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मां कश्चित दुःख भाग भवेत" अगर इस श्लोक का भी अर्थ हम देखें तो यही परिलक्षित होता है, इसमें सभी के सुखी होने की  कामना की गई है, इस प्रार्थना में भी किसी धर्म या पंथ की बात कहां कही गई है। 
        यह प्रार्थना संपूर्ण विश्व हेतु प्रार्थना है, जब हमारे देश में पहले से ही अन्य समस्याएं इतनी अधिक है उन पर ईमानदारी पूर्वक ध्यान देने की आवश्यकता है। 
     दूसरा उदाहरण, जब हमारे बगीचे में विभिन्न किस्म के फूल हो,
वह तभी शोभायमान  होता है, इसी प्रकार हमारे देश की विविधता ही इसकी एकता है , वह इसमें ही देश का सौंदर्य भी है।
       तृतीय उदाहरण, जब प्रकृति ने हम मनुष्यों में कोई भेदभाव नहीं किया, तब हम किस आधार पर भेदभाव की बात करते हैं, 
उसने सभी को समान रूप से पोषण किया है व करती है।
     अब बात करते हैं आज विश्व ऐसे दौर में है, जब हम सभी एक दूसरे पर आश्रित है, व्यापार- व्यवसाय, तकनीक वह अन्य क्षेत्रों में भी विश्व एक दूसरे का सहयोग कर रहा है। 
     ऐसे समय में हम भारत को अग्रणी करने के बजाय इन छोटे-छोटे वैचारिक मतभेदों के सहारे कैसे अग्रणी बनायेंगे।
    विविधता तो ईश्वर ने हमारे शरीर के भीतरी उत्पन्न कर रखी है, 
हमारे हाथ का मिशन किसी दूसरे व्यक्ति से मेल नहीं खाता, जब प्रकृति नहीं इतनी विविधता प्रदान कर रखी है, तो हम क्यों इसका विरोध करते हैं। 
       ईश्वर की दी हुई सृष्टि में यह विचार  ही असंगत है, विविधता होते हुए भी सभी को समान महत्व प्रदान करना चाहिये, दरअसल यह चेतना जागृत होना ही मानवीय धर्म के अनुकूल है, पंथ अनेक हो सकते हैं, धर्म तो एक ही हो सकता है मानवीय धर्म, क्योंकि जितने भी पंथ बने वह सब मानवीय विकास हेतु ही बने हैं।
     हमारे देश का संविधान विविधता में एकता को बल प्रदान करता है, यहां प्रांत, भाषा, बोलियां इनकी विविधता , परंतु एक राष्ट्र के रूप में इनका गठन संविधान के तहत किया गया है, अब बचकानी बातों से हम संविधान को कमजोर ना करें। 
     केवल मानवीय मूल्य व गरिमा ही सर्वोपरि होने चाहिये, इस राष्ट्र में अभी अगर कलमकार चुप रहेंगे, तो फिर हमारे हाथ में कलम का मतलब ही क्या है? 
       हमारा संविधान मानवीय मूल्यों की रक्षा करता है, भूत शोध के बाद उसे गड़ा गया है, और अगर बाद में संशोधन पर कोई अच्छी बात उसमें जोड़ी गई है, तो केवल राजनीतिक आधार पर उसका विरोध  उचित नहीं है।
      हमारे राष्ट्र की वैश्विक मंच पर अभी उपस्थित दमदार है, ऐसी विवादित बातों को बल नहीं दिया जाना चाहिये।

विशेष:-   ऐसी बातों की बजाय मानवीय मूल्यों, आर्थिक सुधार 
            वह सामाजिक प्रतिबद्धता पर बात करें तो उचित होगा,
           हमें देश के भूतपूर्व राष्ट्रपति " श्री अब्दुल कलाम आजाद"
            जैसी शख्सियतों की जरूरत है, जिन्होंने राष्ट्रपति पद की               गरिमा का तो निर्वहन किया ही, राष्ट्रपति पद से हटने के 
             बाद स्कूलों में जाकर  राष्ट्र के प्रति समर्पण का जो भाव
             उन्होंने जागृत किया, वैसे विचार का समर्थन किया                     जाना चाहिये 

आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत, 
जय हिंद


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