यह पिंडे, तत् ब्रह्मांडे

प्रिय पाठक गण,
     सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, मेरी यह प्रवाह यात्रा आप सभी को कैसी लग रही है? कृपया अवश्य बताएं? इससे मेरा भी उत्साहवर्धन होगा।
        हम सभी उस परमपिता की ही संतान है, हम जब तक अपने मानस को परिवर्तित नहीं करते, तब तक आंतरिक शांति कभी भी प्राप्त नहीं कर सकते। 
       देवताओं को भी दुर्लभ ऐसा मनुष्य शरीर हम सभी को प्राप्त हुआ, हम किस प्रकार इसका उपयोग करते हैं, वहां हमारी मानसिकता पर ही सबसे अधिक निर्भर है। 
      संस्कृत में एक सूत्र वाक्य है "यत पिंडे तत् ब्रह्मांडे" , इसका
जो मूल अर्थ है, वह तो यही है, हमारा पिंड जो है, यानी यह शरीर 
ब्रह्मांड का ही लघु रूप है।
     जो हमारे शरीर में भीतर घट रहा है, मन में, विचार में, दरअसल वही बाहर भी घटेगा ही, सबके बीच में रहते हुए भी
अगर हम अपनी मूल चेतना को, विचार को दृढ़तापूर्वक, साहस से 
वह उसकी कृपा को मानकर धारण कर सके, तभी जीवन में बदलाव की प्रक्रिया की शुरुआत होगी।
    अंतर को बदले बिना हम कितने ही उपवास, तीर्थ, नाम-जप,
बाहृय आडंबर कितना भी कर ले, हम स्वयं इस बात को भली-भांति  जानते हैं, कि हम कहां पर सही हैं? कहां पर गलती कर रहे हैं? पर निजी स्वार्थवश  हम हमारी गलतियों पर पर्दा डाल देते हैं।
       हमारे साथ कई जन्मों के कर्म  चले आ रहे हैं, अब इस जन्म में हम कैसे युक्तिपूर्वक कर्म भोग को भोंगते है, यह विचारणीय है। 
हम सभी उस परम सत्ता के एक छोटे से अंश है। करने वाला व
करवाने वाला केवल एक वही है, उसके आगे नित्य नतमस्तक रहे, उसकी कृपा का अनुभव करें। 
        कोई बोध अगर भीतर गहरे कहीं जागृत हो रहा है, तो उसकी अनन्य कृपा समझे, मानो वह हमें दिशा -निर्देश दे रहा है,
इस मानव जीवन को जो अति बहुमूल्य है, हम संवारते जाये,
निखारते जाये, प्रयत्न करते रहें, वह परमात्मा अवश्य कृपा सागर है, उसके लिए समस्त सृष्टि एक समान है। 
    कण -कण में , हर क्षण में उसकी व्यापकता का दर्शन करें, 
अपनी अंतर्दृष्टि को पूर्ण जागृत करें, उसे पिता परमेश्वर का धन्यवाद करें, इतना श्रेष्ठ मानव जीवन हमें प्राप्त हुआ, उसकी कृपा को भीतर गहरे उतार ले, फिर देखें, कैसे सहज ही सब होने लगता है, पूर्ण आश्वस्त रहे, वह कभी कुछ विपरीत घटने ही नहीं देता, दृढ़ आस्थावान  रहे, अपने कर्म पर सजग दृष्टि रखें, कोशिश करें, जितना हमसे सध सके, उतना अपने जीवन को साध ले।
      जितना हम अंतर में भीतर आयेंगे, वह अंतर चक्षु हमें दिव्यता प्रदान करेंगे, जो सामान्य जीवन में रहते हुए भी निरंतर अभ्यास द्वारा हम पा सकते है् ।
     अपनी दुर्बलताओं को छुपाये नहीं, उन्हें भी स्वीकार कर ले, अपने भीतर की अच्छाई को भी स्वीकार करें, उसकी कृपा को 
थाम ले, सुमिरन करते रहे, अनन्य भाव से, फिर आपका जीवन 
धीरे-धीरे रूपांतरित होने लगेगा, भीतर से जब रूपांतरण की शुरुआत हो जाती है, तब सहज ही सब कुछ सही दिशा की ओर चलने लगता है। 
विशेष:- भीतर से बदलाव अत्यंत आवश्यक है, हम हमारे स्वयं के कर्म पर दृष्टि अवश्य रखें, परमात्मा का नित्य चिंतन अवश्य करें,
उसका चिंतन हमें कई प्रकार के झंझावातों से बचाता है, नियम पूर्वक उसकी शरणागति में रहे, परम अहो भाव से नित्य उसका वंदन करते रहे।
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद।

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