सागर नमन,
आप सभी को सादर मंगल प्रणाम, हम सभी एक सभ्य समाज का एकअंग है, अगर कहीं पर भी सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन होता है, तो वह किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है, हमारे संस्कार हमें यह सिखाते हैं, सामाजिक नियमों परिपालना किस प्रकार की जाये, अगर समय पर भी हम उचित बात को ना कहें, तो यह भी ठीक नहीं, समाज में सभी तरह की विचारधारा, भिन्न-भिन्न पंथ,
संप्रदाय व आस्था, जिस भी व्यक्ति की जिस समाज में आस्था है,
वह उसका परिपालन करें, वह अन्य कोई अगर उसके नियमों का पालन कर रहा है, तो उनका विरोध भी ना करें।
मगर कुछ समय से समाज में यह देखने में आ रहा है, लोगों में सहनशक्ति की कमी होती जा रही है, बहुत छोटी सी
बातें विवाद का रूप ले लेती है, इसका केवल एक ही मूल कारण है, सामाजिक सहिष्णुता की कमी, यह समाज विभिन्न प्रकार के वर्गों से मिलकर बनता है, इसमें भिन्न विचारधारा वाले, भिन्न-भिन्न मानसिकता के व्यक्ति रहते हैं, परम मानवीय दृष्टिकोण की हमेशा समाज को आवश्यकता रही है और रहेगी।
कुछ समय से देखने में यह आता है, धार्मिकता की ओट
मैं राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति करने का जो चलन है, वह समाज में बढ़ता जा रहा है, और यह किसी भी मानवीय मूल्य वाले समाज के लिए एक चिंतनीय विषय है। अगर कहीं भी मानवीय मूल्यों व गरिमा को आघात पहुंचता है, तो वह समाज धीरे-धीरे अवनति की ओर जाने लगता है, मानवी मूल्यों को बनाये रखना, यह सभी का एक सामाजिकता के नाते कर्तव्य होना चाहिये।
जन्म सामान्य यह सब देखते हुए भी अपनी सक्रियता नहीं बढ़ाता, समय-समय पर समाज में इस पर मंथन होना चाहिये, और वह मंथन समाज हित में होना चाहिये, अगर उनसे सामाजिक अच्छे नियमों का उल्लंघन हो रहा है, आपसी संबंध बिगड़ रहे हैं,
तो निश्चित ही हमें पुनर्विचार की आवश्यकता तो है।
अगर कोई भी धार्मिकता की आड़ में, छद्म रूप धरकर , मूल आचरण समाज के विपरीत हो, तो वह किसी भी दृष्टि में उचित नहीं, जो भी सत्यप्रवृत्ति के व्यक्ति है, वह अगर समय रहते अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट नहीं करते तो तो और अधिक घनघोर स्थिति की नौबत आ जायेगी।
साहसिक बने, अपने आसपास कुछ भी विपरीत घटना पर जो भी घटना समाज के विरोध में हो, उसे पर अपना प्रतिरोध।अवश्य जाहिर करें, केवल अगर हम मूक दर्शक ही बने रहे, तो उससे अब कार्य बनने वाला नहीं, अच्छी प्रवृत्ति के लोगों को संगठित होना चाहिये, सभी विपरीत प्रवृत्ति वाले लोगों पर हम लगाम कस सकते हैं।
जिनकी कथनी व करनी में अंतर है , ऐसे लोगों का समर्थन भी न करें, वह भी समाज के लिए हानिकारक है।
हम समाज शब्द का विच्छेद करें, सम+आज=समाज, यानी सब समान, सभी को समान अधिकार। अपने-अपने कर्मों को पूर्ण निष्ठा से हम स्वयं तो करें, समाज में भी इसका प्रचार-प्रसार करें।
वैचारिक भिन्नता स्वाभाविक है, पर वह इतनी ना हो कि हम एक दूसरे का सम्मान ही ना करें, सबसे बड़ी कसौटी हमारा स्वयं का आचरण होता है। उसे आप जितना पारदर्शी रखेंगे, उतना ही अधिक आप अंदर से भी संतुष्ट होंगे।
विशेष:-समाज में वैचारिक भिन्नता एक स्वाभाविक सी बात है, मगर वह इतनी अधिक ना हो, कि उससे सामाजिक ढांचा ही तार-तार तार हो जाये। उसका स्वरूप ही विकृत हो जाये, हमारी स्वयं की मानसिकता ही हमें इस बारे में ऊपर उठा सकती है, अन्य कोई मार्ग नहीं।
आपका अपना
सुनील शर्मा
जयभारत
जय हिंद।
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