समुद्र -मंथन

प्रिय पाठक गण,
       सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
 प्रवाह की इस मंगलमय अद्भुत यात्रा में आप सभी का स्वागत है, 
स्वतंत्रता दिवस अभी कुछ दिन पहले ही गया है, दर असल यह ले लेख उसी समय के लिये था, पर किसी करोड़ उसे समय पोस्ट नहीं कर पाया।
स्वतंत्रता दिवस पर सभी देशवासियों को सादर नमन, सादर वंदन 
देश ने हमें क्या दिया, यह न सोच कर हम देश को क्या दे रहे हैं,
इस पर विचार अवश्य करें? 
       आज स्वतंत्रता के 78वें वर्ष  में प्रवेश करने के उपरांत भी 
क्या हम वैचारिक रूप से स्वतंत्र हैं।
   हम अपने विचार, जो भी हमारे भीतर उमड़ रहे हैं, वह कितनी स्वतंत्रता पूर्वक हम अभिव्यक्त कर सकते हैं, यह मंथन का विषय है।
        समाज में वैचारिक मंथन होना अत्यंत आवश्यक है, हमारा समाज विभिन्न विचारधारा, विभिन्न पंथो, भिन्न-भिन्न वक्तियों, भिन्न भूभाग, अलग-अलग भूभाग के अलग-अलग रीति रिवाज, मगर क्या है वह जो हम सबको आपस में जोड़ता है, वह हमारा देश है, 
इस देश की मिट्टी है, जो भी व्यक्ति अपनी जननी, जनक, जन्मभूमि इन तीनों के प्रति कृतज्ञता नहीं होता, वह मानो अपने आपका बोझ ही उठाये होता है।
         "विभिन्नता में एकता" , हमारे राष्ट्र की प्रथम विशेषता है,
चाहे हम किसी भी धर्म मत पंथ जाति समूह के सदस्य हो, जब बात राष्ट्र की आती है, हम सभी अपने-अपने तरीके से राष्ट्र के हित का ही अनुसरण करते हैं, राष्ट्र का अभ्युदय ही चाहते हैं।
      वैचारिक असमानता का मतलब यह नहीं है कि हम किसी भी रूप में राष्ट्रीयता के विरोधी है?
     पिछले कुछ समय से जिस प्रकार से वैचारिक असहमति को भी  अन्य बातों से जोड़ दिया जाता है, वह किसी भी राष्ट्र के लिए गौरव का विषय नहीं है। 
      हम सभी इसी राष्ट्र के एक अंग है, सभी को समान अवसर प्राप्त हो, असमानता न हो, वह केवल शारीरिक, आर्थिक ही नही,
वरन मानसिक स्वतंत्रता भी हो।
     एक खुले महल में हम बगैर किसी भय के अपनी बात को    कह सके, यह एक राष्ट्र की सही परिकल्पना है। 
    अगर हम द्वेष पूर्ण ढंग से किसी के प्रति बर्ताव करते हैं, तो हम निश्चित ही राष्ट्रीयता का सही अर्थ अभी भी समझे नहीं है, जब हम एक राष्ट्र की बात करते हैं, तो उसमें अमीर- गरीब, अभिजित्य  वर्ग, अधिकारी, राजनीतिज्ञ, बुद्धिजीवी, साधारण जनता, सभी आ जाते हैं। 
          वैचारिक मतभिनता समाज में होती ही है, पर उन सभी में आवश्यक समन्मेंवय  भी उतना ही आवश्यक होता है, भिन्न-भिन्न प्रकृति, भिन्न-भिन्न समूह, पंथ , विभिन्न मतों को मानने वाले, सभी शमिल है।
       समस्याएं कितनी भी हो, मगर हमारा मानस भीतर से सही हो, तो अनेक समस्याओं के बाद भी हम उनका मुकाबला करके राह निकाल सकते हैं।
     हम अपने प्राण पर कितने अडिग हैं, हमारी राहे वहीं से निकलती है, जीवन मे सत्य पाठ को किसी भी सूरत में हम न भूले। सत्य-पथ को अगर हम अपना मूल आधार बनाते हैं, तो देर सवेर हमें विजय श्री प्राप्त होगी।
      हम याद रखें, हमारा आचरण हम स्वयं तय करते हैं, कोई और नहीं। 
     समुद्र मंथन भी जब हुआ था, तब उसमें से सबसे पहले हलाहल विष ही बाहर आया था , आज फिर समझ में समुद्र मंथन की आवश्यकता है, ऐसा मुझे लगता है। 
      आज का समुद्र मंथन वैचारिक समुद्र मंथन है, हो सकता है आज भी जब हम समुद्र मंथन करेंगे, तो पहले हलाहल  विष ही बाहर आने की संभावना है ।
          हमारी विचारधारा जोड़ने की है या तोड़ने की? यह हमें तय करना ही होगा।
       समाज में हम लोगों को आपस में जोड़ने का कार्य करें, समाज के प्रति प्रतिबद्ध हो, समाज से ही राष्ट्र बनता है, यह राष्ट्र सभी का है, सभी के अधिकार के साथ जवाबदेही भी तय होना चाहिये।
         जो भी इस राष्ट्र में रहते हैं, यह राष्ट्र उन सभी का है , समाज में हम लोगों को जोड़ने का कार्य करें, समाज के प्रति प्रतिबद्ध हो, 
सभी को समान स्वतंत्रता  का भी अधिकार  है।
     आज का समुद्र मंथन वैचारिक समुद्र मंथन है, हमारी विचारधारा जोड़ने की है, या तोड़ने की? यह हमें तय करना ही चाहिए। 
        समाज  व राष्ट्र के प्रति हमारे कुछ कर्तव्य भी है, हमें कर्तव्य को पूरा करने की और ध्यान देना चाहिये, अधिकार तो आपको स्वत: ही प्राप्त हो जायेगा।


  

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