गीता जयंती ( मोक्षदा एकादशी)

प्रिय पाठक गण,
      सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
       आज प्रवाह में हम चर्चा करेंगे, कालजयी ग्रंथ गीता जी पर, कालजयी  इसलिये कह रहा हूं, विचार पूर्वक जब हम मंथन करते हैं, तो पाते हैं, कितने साधारण शब्दों में भगवान  श्रीकृष्ण श्रीमद् भागवत गीता में कर्म की व्याख्या करते हैं, वे स्पष्ट रूप से कहते है,
स्वधर्म ही सबसे उत्तम है।
      यानी आपने जो भी कर्म करने का बीड़ा उठाया है, यह जीवन में आजीविका के लिये भी आप जो कर्म कर रहे हैं, उसे पुर्ण ईमानदारी व निष्ठा पूर्वक हम करें, वे निष्काम कर्मयोग को सबसे अधिक महत्व प्रदान  करते हैं, अपना जो भी कार्य है, वह पूर्ण निष्ठा और ईमानदारी पूर्वक आप करें शेष फल ईश्वर के ऊपर छोड़ दे, इतने साधारण शब्दों मैं इतनी गहरी बात गीताजी में कही गई है। 
     वह कर्तव्य पथ से हटने की बात कभी नहीं कहते, बल्कि पूर्ण ईमानदारी से, दृढ़तापूर्वक अपने कर्म पथ पर डटे रहने की बात करते हैं, उन्होंने निज कर्म को श्रेष्ठ माना 
हैं, आप कोई सा भी कर्म आजीविका के लिये भी जो अपना रहे हैं, पूर्ण निष्ठा पूर्वक आप करें, अब निष्काम कर्म हम किस प्रकार करें,
हर करम में कुछ ना कुछ भाव जुड़ ही जाता है, कभी हम कोई सामाजिक कार्य करते हैं,
तो हमारी ख्याति का, गरिमा का भाव, हमारी पछ परख, यह जुड़ जाता है, भगवान श्रीकृष्ण इस भाव से भी ऊपर उठकर सहज भाव से कर्म करने की बात कहते हैं, वे कर्म तो करने की कहते हैं, मगर कर्म फल में आसक्ति का त्याग करने की बात करते हैं, क्योंकि जैसे ही हम कर्म में  आसक्ति उत्पन्न करते है, हम कर्म बंधन की ओर बढ़ जाते हैं। 
    कर्म तो हमें वही करना है, मगर उसे कर्म के फल में जो हमारी आसक्ति है, बस उसका  हमें त्याग कर देना है, इस आसक्ति का मानसिक रूप से, भीतर से त्याग हम कर देते
हैं, तो कर्म करते हुए भी हम कर्म बंधन के भार से मुक्त हो जाते हैं।
       नि:स्पृह भाव से, इस कर्म को जो हम कर रहे है, हम करते रहे, बगैर स्वार्थ के, इतना सुंदर संदेश गीताजी हमें प्रदान करती है। 
     वह हमें कर्म से हटाती नहीं, कर्म बंधन से हटाने का मार्ग बताती है, अपना कर्तव्य  मानकर हम यह जीवन  जीवन की गतिविधियां उनके प्रति समर्पण भाव से कर दें, शेष परमात्मा पर छोड़ दे, यही समत्व भाव 
भगवान श्री कृष्ण हमें सिखाते हैं। 
        स्व- अनुशासन का पाठ हमें  भगवत गीता में प्राप्त होता है, हमें अपने दोषो पर कार्य करना चाहिये, हमने जो भी कर्म अपनाया है, कहीं हम उससे विमुख तो नहीं हो रहे, उसे पूर्ण ईमानदारी से हम करें, यही गीता जी का सार है। 
        यह एक अद्भुत ग्रंथ है, जो किसी वर्ग- विशेष , संप्रदाय से न जुड़ा होकर आपको अपने जीवन मैं किस प्रकार जीना चाहिये,
जीवन पद्धति का विकास करने के लिये इस ग्रंथ का मनन व चिंतन अवश्य करना चाहिये,
यह सभी के लिये एक बहु उपयोगी ग्रंथ है,
इसमें किसी व्यक्ति विशेष के लिए कोई बात ना कह कर कर्म की महत्ता को दर्शाया गया है।
        ऐसे सर्वश्रेष्ठ मानव मात्र को शिक्षा प्रदान करने वाले, चेतन प्रदान करने वाले, अद्भुत ग्रंथ श्रीमद् भागवत गीता वह उनके नायक श्री कृष्ण जी को सादर वंदन। 
      श्री मद्भागवत  गीता हर दौर में पठनीय,
मनन करने योग्य, चेतन को जागृत करने वाला ग्रंथ है, जो उनकी शरणागति होकर अपना कार्य करते हैं, निसंदेह वह इस जीवन में 
अपने स्वकर्म को करते हुए ऊंचाई को पाते हैं।
   ऐसे अद्भुत व कालजी ग्रंथ को बारंबार प्रणाम, जो हमें दिशा प्रदान करता है, अंधकार से प्रकाश की और, चेतना को जागृत करने वाला अनुपम यह ग्रंथ है।
विशेष:- हम अपना स्वकर्म पूर्ण ईमानदारी से व निष्काम भाव से करें, शेष परमात्मा पर छोड़ दे, बस यही संदेश है, गीता जी का, सरल व सहज रूप में वह कहते हैं, आपका जो भी कर्म है, वह पूर्ण निष्ठा पूर्वक आप करें, इसी में आपका कल्याण निहित है, ऐसे ग्रंथ को एक बार अवश्य आप पढ़ें, मनन करें, यही विनय।
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत, 
जय हिंद, 
वंदे मातरम। 



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