कालचक्र

प्रिय पाठक गण,
   सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
प्रवाह की इस मंगलमय यात्रा में आप सभी का स्वागत है।
      समय नित्य परिवर्तनशील है, वह निरंतर बदलता रहता है, 
उसकी गति तो निरंतर प्रवाहमान हैं, मगर मनुष्य को  यह बोध
अवश्य होना चाहिये की समय अपने साथ होने पर हमारा आचरण किस प्रकार से होना चाहिये, प्रकृति ने अगर हमें शक्ति प्रदान की है, आंतरिक ऊर्जा हमारी जागृत की है, तो समझ के प्रति हमारे जो भी नैतिक ,सामाजिक दायित्व है, उनका निर्वहन हम पूर्ण ईमानदारी से वह उस परमपिता को साक्षी रखकर करें।
     इस संबंध में हमें इतिहास से यह सबक सीखना जरूरी है, क्या हो सकता है?  उसे सजगता पूर्वक हम देखें, महाभारत में 
भीष्म पितामह जो प्रतिज्ञा लेते हैं, कि मैं राज सिंहासन पर बैठे व्यक्ति के प्रति समर्पित हूं, उसने महाभारत का युद्ध रचने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, वह उसे राज कुल में सबसे भाइयों वयोवृद्ध थे, उनकी भूमिका राज सिंहासन की गरिमा के प्रति होना चाहिये थी, राज सिंहासन पर बैठे किसी व्यक्ति -विशेष के प्रति 
 नहीं ।
         अगर उसे समय वे साहसपूर्वक अपने निर्णय की  सही समीक्षा कर पाते तो महाभारत न होती, गुरु द्रोण, गुरु कृपाचार्य 
जैसे विद्वान भी जिस सभा में थे, महात्मा  विदुर भी थे, जिस सभा में इतने विद्वान थे, सत्य के अनुगामी न बन सके, और महाभारत हुई ।
       भगवान श्री कृष्णा स्वयं अपना संदेश पांडवों की ओर से लेकर गये, मात्र पांच गांव पांडवों के लिए ताकि न्याय हो सके, 
अभिमन्यु दुर्योधन ने उसे अस्वीकार कर दिया।
     हम सभी के जीवन में ऐसे क्षण आते हैं, और आयेंगे,
जब हमें जीवन में निर्णय करना होता है। 
    भरी सभा में सत्य कहने के लिये गीताजी में श्री कृष्ण जो संवाद सभा में कहते हैं, उसे गौर से समझिये, वे राज्यसभा में रहते हैं कि युद्ध तो अनिवार्य सा प्रतीत हो रहा है, मगर एक अंतिम
प्रस्ताव पांडवों कीऔर से लाया हूं, उन्हें युद्ध नही, पांच गांव प्रदान कर दीजिये, जिससे उनका भरण पोषण हो सके, अहंकार से युक्त
होने के कारण दुर्योधन इस प्रस्ताव पर मना कर देता है।
    राज्यसभा में भीष्म पितामह मौन रहते हैं, गुरु द्रोण, गुरु कृपाचार्य वह राजा धृतराष्ट्र सभी मूक दर्शक बने सका समर्थन कर देते हैं, केवल महात्मा विदुर श्री कृष्ण के पक्ष में खड़े होते हैं।
वे महाराज धृतराष्ट्र से भी कहते हैं, महाराज इस अन्याय को रोकिये, मगर राजा उनकी नहीं सुनते।
      भगवान श्रीकृष्ण गीता में यही संदेश देते हैं, कोशिश करते हैं, 
महाभारत टल जाये, मगर सभासदों का मौन, जो उसे समय मुखर हो जाते, तुम महाभारत नहीं होती।
    इसी प्रकार हम सभी का जीवन है, हमारे मन में कई बार संशय की स्थिति उत्पन्न होती है, क्या करें क्या नहीं? गीताजी जैसे सर्वकालिक ग्रंथ का आश्रय ले, ध्यान पूर्वक चिंतन एवं मनन करें। 
      अपने दायित्व का,  कर्तव्य का हमें बोध होगा।, सामाजिक दायित्व के निर्वहन कि जब  जब बारी आती है,   हमें श्री कृष्ण
वह महात्मा विदुर जैसे बौध से निर्णय करना चाहिये।
     इतिहास में ही उदाहरण अनगिनत है, कालचक्र हमें मौका प्रदान करता है, हम श्री कृष्ण की भांति, महात्मा विदुर की भांति
निर्णय करें। 
      हमारे जीवन में भी बाधाएं आती ही है, मगर हमें निर्णय तो करना होते हैं।
    कालचक्र हमें सिखाता है ‍ग्रंथ ,संत व आंतरिक चेतना का आश्रय ले।

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