सादर नमन,
आप सभी को मेरी यह वैचारिक यात्रा कैसी लग रही है ,अवश्य बतायें।
जीवन एक अविराम प्रक्रिया है, नित्य नूतन सीखना, अनेक अनुभवों से गुजरना।
जैसी हम बाहर के जगत की यात्रा करते हैं,
इस प्रकार हम अपने भीतर के जगत की जब जरूरत महसूस करें, हमारे स्वयं की कोई संभावना छोटी सी भी, जो हमारे आंतरिक पथ को आलोक प्रदान करें, इस पर हमें चलना चाहिये।
नित्य नए अनुभव हमें आते हैं, खुश रहें, आप खुश वह प्रसन्न चित्त रहेंगे, तो सभी आपसे मिलकर प्रसन्न होंगे।
सर्वप्रथम हमें खुश वह प्रसन्न रहने का अभ्यास करना चाहिये।
प्रसन्न चित्तता ही सर्वोपरि भक्ति है, आंतरिक भावों को हम जितना परिशुद्ध करते चलेंगे , उतना ही अधिक हम शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करेंगे।
जितना परिशुद्ध हम भीतर से होते जायेंगे, हमारा आनंद बढ़ने लगेंगा।
नित्य परमपिता परमेश्वर, अपने माता-पिता, गुरुजनों व आत्मीय वृद्ध जनों को हम याद करते हुए, उनके प्रति जीवन में सदा कृतज्ञ रहे।
खास तौर से हमारे माता-पिता, जिन्होंने अपने ऊपर कई बाधाये झेली, मगर संतान की खुशी हेतु वह अपनी कई इच्छाओं का भी दमन करते रहे, माता-पिता हमेशा संतान की खुशहाली के लिए ही कार्य करते हैं।
वृद्ध जनों के पास अपने जीवन के अनुभव होते हैं।
युवाओं को भी चाहिये, बुजुर्गों के पास कुछ समय अवश्य बिताये, अनेक प्रकार की समस्याओं का समाधान उनकी अनुभवी आंखें परख लेती है, वह अपने जीवन के अनुभवों से मिली सीख हमें प्रदान करते हैं।
नई मंजिलें हमारा रास्ता देख रही है।
प्रसन्न चित्रता का भाव हृदय में रखें, नित्य ऊर्जा उस परमपिता से प्राप्त करें, उनकी मंगरिक शरण में आते ही समस्त भव बाधाएं दूर होने लगती है, भीतर की दिव्य दृष्टि जागृत होने से व्यक्तित्व निखरने लगता है।
मनोबल बढ़ जाता हैं, जितनी हमारी आंतरिक दृढ़ता हमारी अपने लक्ष्य के प्रति होगी, उतना ही जल्दी हम उसे प्राप्त करने में सक्षम होंगे।
नित्य प्रति उन प्रभुके चरणों मे वंदन करें,
उन्हें साक्षी मान अपने जीवन की इस यात्रा को पूर्ण करें।
उन्हें धन्यवाद दे, जो उन्होंने हमें प्रदान किया है, उन्हें सब पता है, हमारे दिल में क्या
है? वह कभी अपने भक्तों का क्षरण नहीं होने देते, जो परम विनय पूर्वक उनकी कृपा में आता है, वह सहज ही इस भवसागर को पार कर लेता है।
परम चेतना उसे मार्ग दिखाती है, सहज रूप से अपने आप कार्य होने लगते हैं, उसकी कृपा बरसने लगती है।
सबका मंगल हो, सब पर मेरे प्रभु की कृपा बरसे, उसे विराट की झलक की कुछ अंशों में
मुझ पर कृपा हुई है, उतने से ही मैं परम निहाल हो गया हूं।
जो आत्म तत्व को जानने वाले महापुरुष है , वे कैसे होंगे, इसकी तो हम कल्पना भी नहीं कर सकते।
विज्ञान भी ऊर्जा को मानता है, वह हमारा सनातन या वैदिक धर्म भी ऊर्जा को ही मानता है।
ऊर्जा का संग्रहण हमारे भीतर है, वह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना महत्वपूर्ण हम उसे ऊर्जा को दिशा कौन सी प्रदान कर रहे हैं, वह सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।
विशेष:- परमात्मा से हम उस ऊर्जा शक्ति को प्राप्त कर ऊर्जा को भीतर संग्रहित रखें, वह उस ऊर्जा का उपयोग हम स्वयं, परिवार, वह समाज के कल्याण हेतु खर्च करें।
स्वयं जागृत हो, फिर परिवार, गली, मोहल्ला, देश व विश्व इस प्रकार क्रमशः हम वृद्धि करें, निरंतर सकारात्मक अभिवृद्धि हो,
यही हार्दिक शुभकामनाएं।
आपका अपना
सुनील शर्मा
जय भारत
जय हिंद।
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