वर्तमान परिदृश्य (समसामयिक)

प्रिय पाठक गण,
     सादर नमन, 
 आप सभी को मंगल प्रणाम, 
प्रवाह की इस अद्भुत यात्रा में आप सभी का
स्वागत है। 
आज जो संपूर्ण विश्व है, वह कहीं ना कहीं आर्थिक ,सामाजिक वह व्यापारिक तीनों ही प्रकार से एक दूसरे से  जुड़ा है, अत्यधिक स्वार्थ पर आधारित राजनीतिक व्यवस्था अंततः उसी के विनाश का कारण बनती हैं।
         इस समय अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप की बचकाना हरकतों से ऐसा ही प्रतीत होता है। 
       ऐसे समय में भारतीय संस्कृति की यह विशेषता "सर्वे भवंतु सुखिन, सर्वे संतु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मां कश्चित दुख भाग भवेत्" , यह हमारी प्राचीन संस्कृति की मूल अवधारणा है, वह कितनी स्पष्ट है, जो सबके सुखी होने की कल्पना व कामना करती है, वैसे धरातल पर भी उतारती है। 
      ऐसी विराट विचार वाली हमारी मूल संस्कृति है, और यह संस्कृति ही हमारे देश का
प्राणतत्व है, फिर क्या कारण है  कि हमारे देश में हिंदी मराठी भाषा विवाद पर प्रबुद्ध राजनीतिक प्रबुद्ध जनता पत्रकारों का चुप रहना, समझ से परे हैं,
          एक और तो हम संपूर्ण देश को एक करने की बात करते हैं, और दूसरी और इस प्रकार की राष्ट्र के विरुद्ध जो बात है, उसे पर राजनेताओं व पत्रकारों, यहां तक की निर्भीक कवि जो कहे जाते हैं, उन सभी की ख़ामोशी 
उचित नहीं, और दिन थोड़े बहुत लोगों ने इस बात का विरोध किया है, वे प्रशंसा के पात्र हैं, इस देश को बनाने में हमारे क्रांतिकारियों, स्वतंत्रता सेनानियों मैं बहुत महत्वपूर्ण योगदान इसलिये नहीं दिया कि अब राष्ट्र मेंइस प्रकार की बातें हो, एक और तो धारा 370 खत्म करने का समर्थन , पर इतनी महत्वपूर्ण विषय पर राजनीतिक चुप्पी समज्ञ परे है।
       अत्यधिक सत्ता संघर्ष ने क्या हमारी बुद्धिमत्ता को भी नष्ट कर दिया है, निष्पक्ष नजरिये अगर हम देखे तो यह कतई ठीक नहीं, इस राष्ट्र में युवा भी है, हम उन्हें क्या संदेश देने जा रहे हैं? हमें इस प्रश्न का विस्तृत 
समाधान खोजना चाहिये।
      अत्यधिक भौतिकवाद ने हमारी समझ रिश्तो को भी भीतर से खोखला कर दिया है।
      वर्तमान समय में हमारी पारंपरिक जड़ों को मजबूती प्रदान करना व वह नया जो भी है, उसे भी ग्रहण करना, दोनों ही जरूरी है। 
      यह परिपक्व समाज की जवाबदारी भी है, इन चीजों को अनदेखा न करें, वरना इस प्रकार की बातें देश में बढ़ने लगेगी, दिशाहीन  देश  व समाज कभी प्रगति नहीं कर सकते,
आज विश्व जिस पीड़ा से गुजर रहा है, वह उसी की बनाई हुई है। 
    धर्म हमें भयहीन करता है, निडरता प्रदान करता है, अगर हमें धर्म निडर नहीं बनाता, तो फिर कहीं हमारे  आचरण में त्रुटि हुई है। 
    धर्म के जागरण से तो भीतर एक आनंद और साहस की अनुभूति होना चाहिये, एक स्वच्छ संकल्प विकसित होना चाहिये, अगर नहीं होता तुम धर्म के सही स्वरूप से अभी परिचित नहीं है। 
विशेष:- आज के वैश्विक परिदृश्य में जो घट रहा है, वह हमारे मानवीय भूलों का परिणाम है, जिन्हें हमें समय रहते ही समझना चाहिये,
प्रकृति ,पर्यावरण, प्रेम ,स्नेह, करुणा यह सब मूल सार्वभौमिक मूल्य है, सार्वभौमिक यानी 
इस पृथ्वी पर सभी के लिये, भौतिक तरक्की हम अवश्य करें, मगर उसका वितरण  असमान हो तो वह सामाजिकता के नियमों के खिलाफ हैं, हमें दृढतापूर्वक हमारी मूल संस्कृति का चिंतन मनन करना चाहिये गैस का अनुसरण करना चाहिये, तभी हम इस समस्या को दूर कर सकते है।

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