आंतरिक व बाह्य समृद्धि

प्रिय पाठक गण,
    सादर नमन,
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
मुझे पूर्ण आशा है आप सभी को मेरे विभिन्न विषयों पर लिखे गए लेख जरूर पसंद आ रहे होंगे। 
प्रवाह की इस मंगल में यात्रा में आज मेरा लेख है आंतरिक वह बाह्म समृद्धि पर। 
        मनुष्य शुरू से ही प्रयोग धर्मी रहा है,
वह निरंतर आगे से आगे जो भी खोज होती है, वह उसकी इसी जिज्ञासा का ही परिणाम है, वैज्ञानिक अन्वेषण होते ही रहेंगे, मनुष्य जाति निरंतर नए सोपानों को छूयेगी, मगर इन सब में एक बात जो विचारणीय  है, वह यह है,
हम संपूर्ण विश्व को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं, भौतिक साधनों की तो हमारे यहां कोई कमी नहीं, फिर क्या कारण है, कि मनुष्य इतना अशांत है, निश्चित ही संपूर्ण मनुष्य जाति को एक अवलोकन की जरूरत है, और इस बारे में हमें हमारी संस्कृति से सशक्त कोई और माध्यम मिल ही नहीं सकता, हमारी संस्कृति में सब कुछ बहुत स्पष्ट है, सृष्टि के संपूर्ण पांचों तत्व  पृथ्वी जल,अग्नि,वायु और 
आकाश, वह मनुष्य जिससे जीवित है ,वह  प्राण तत्व, इस प्रकार से मनुष्य का शरीर निर्मित हुआ।
        हमारी आंतरिक समृद्धि हमारे आंतरिक विचारों पर निर्भर है, वह बाह्य भौतिक समृद्धि हमारे जो भी हम व्यवसाय या नौकरी करते हैं, उसे पर पूर्ण रूपेण निर्भर है।
       आज  हम एक समाज के भीतर रहते हैं,
तो जो समाज में घट रहा है, उसे पूर्ण रूप से अनजान भी नहीं रह सकते, मेरे विचार में 
हमारी भारतीय संस्कृति का यह सूत्र वाक्य है, "सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे संतु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मां कश्चित दुख भाग भवेत",
इतनी उदार मना संस्कृति हमारी है, जो विश्व में सबके कल्याण की बात करती है, फिर भारतीय समाज में इतनी अधिक विषम परिस्थितियों क्यों है?
           इसका एकमात्र जवाब यह है, हमारे कथनी व करनी में अंतर, अगर हम जो कह रहे हैं, वह कर नहीं रहे, तो फिर बेहतर परिणाम की उम्मीद हम किस प्रकार कर 
 सकते हैं। इस समाज में रहने के कारण कहीं ना कहीं हम भी इसके लिए उत्तरदायी हैं,
हम भ्रष्टाचार की घटनाओं को शुरुआत से नजरअंदाज करते आ रहे हैं, और वह एक भीषण रूप ले चुकी है, जब रोग भीषण हो जाये, तब एकमात्र उपाय शल्य चिकित्सा बचता है।
       हम हम आगे कैसे समाज में जी रहे हैं,
जहां पर विभिन्न विचारधाराएं हैं, हमें निश्चित ही भौतिकवाद कितना आवश्यक है, इस पर गौर तो करना ही होगा, इसके लिए हमें विभिन्न माध्यमों से लोगों को स्वरोजगार के लिए प्रेरित करना चाहिये, क्योंकि नौकरियों की संख्या इतनी अधिक नहीं, जितनी मात्रा में हमारी जनसंख्या है, मेरे मौलिक विचार में हमें स्वरोजगार की जो परिकल्पना है, वह स्थानीय स्तर पर जो भी रोजगार हो सकते हैं, उन्हें हम बढ़ावा दे, तो इस समस्या का बहुत कुछ समाधान हो सकता है।
       इसके साथ ही हम सभी को इस बात के लिए भी प्रेरित करें यह समाज सभी से मिलकर बना है, तो इसमें जो विकृतियों आयी
 है, उसके लिए थोड़े-थोड़े दोषी तो सभी हैं,
यह हम सभी के लिए आत्म मंथन का समय है, जब हमें एक सिक्के के दोनों ही पहलू आंतरिक व बाहृय समृद्धि पर समान रूप से विचार करना होगा ।
      आंतरिक समृद्धि वह है, जो हमें मानसिक उत्साह प्रदान करती है, जीवन जीने का नित्य उत्साह, उत्सव पूर्वक हम अपने कार्यों को करें, यह दृष्टिकोण में भीतर से समृद्ध करता है। जीवन में भौतिक संपदा भी आवश्यक है, मगर हम जब आंतरिक समृद्धि व बाह्य समृद्धि दोनों का संतुलन सीख जाते हैं, तू जीवन की सही राह को हम समझ लेते हैं,
हम जितनी अच्छी प्रकार इस बात को समझेंगे , उतना ही हमारा स्वयं का जीवन तो सुखद होगा ही, हम औरों को भी इसके लिये प्रेरित कर सकेंगे।
    तो लिए हम आंतरिक व बाह्य दोनों प्रकार की समृद्धि को प्राप्त करें, वह संतुलन द्वारा 
हमारे जीवन की धारा में निरंतर प्रवाहमान रहकर कार्य करें।
समय-समय पर अपनी गतिविधियों का आकलन करें, हम अपने लिये, उसके बाद कुछ समय समाज के लिए आवश्यक निकालें,
वह चाहे अच्छे विचार के रूप में हो, आप धन दे सके, समय दे सके, जिस प्रकार से भी आप सकारात्मक रूप से समाज को सहयोग कर सके, वह अवश्य करें। 
विशेष:- हमारे जीवन को हम सुगम व सरल,
आंतरिक  व बाह्य दोनों प्रकार की समृद्धि से भरपूर बना सकते हैं, यह पूर्णतः हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर है, आप सभी का पुनः धन्यवाद, आपकी और मेरी यह साझा  वैचारिक यात्रा इसी प्रकार चलती रहे।
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद 
हम फिर मिलेंगे, अगले लेख में।
 

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