सादर नमन,
आप सभी को मंगल प्रणाम,
प्रवाह की इस अद्भुत यात्रा में आप सभी का
स्वागत है, ईश्वर कहे, निराकार कहे, जो भी हम उसे नाम दे, क्या कहे यह ब्रह्मांड स्वचालित है, यह अपने स्वयं के नियम पर कार्य करता है, तमाम तरह की जो धारणाएं हैं।
एक बात आप सभी को कहना चाहता हूं, मनुष्य को आंतरिक रूप से क्या प्रिय है?
प्रकृति, सौंदर्य, आनंद व मानसिक शांति वह जीवन में उपभोग के लिए भौतिक साधनों का होना, जिनका वह जीवन में उपभोग कर सके, पर जरा हम सभी मिलकर यह सोचे कि आज हम यंत्रवत जीवन नहीं जी रहे हैं, या फिर यह कहे, कोई भी व्यक्ति कुछ भी विचार हमारे मन में डाल देता है, और हम उधर ही चल देते हैं।
हमारा स्वयं का इस बारे में क्या सोच है? हमारे अपने अनुभव में हमने क्या पाया है?
इसका उत्तर बाद ही सीधा सा है, हम अपना अहित नहीं चाहते, तो फिर हम सामने वाले के अहित की कल्पना भी क्यों करते हैं?
क्योंकि अगर हम किसी भी भगवान को नहीं मानते, किसी अध्यक्ष शक्ति को भी नहीं मानते हैं कि यह संपूर्ण ब्रह्मांड स्वचालित है, फिर भी हमें तरंग या स्पंदन या हमारे भीतर के जो भी भाव है, क्या उन पर कार्य नहीं करना चाहिये, क्योंकि जो हम सोचते हैं, अंततः जाते भी हम इस दिशा की और है।
मानसिक शांति पाने का सबसे बेहतर तरीका क्या हो सकता है? हम जहां पर भी रहते हैं, जिस घर, परिवार व समाज का हम हिस्सा है, उसकी बेहतरीन के लिए हम अपनी ओर से क्या प्रयास कर रहे हैं, वह बहुत ही महत्वपूर्ण है।
हमेशा समाज में दो तरह की मनोवृति के लोग होते हैं, एक सृजनात्मक व दूसरे विध्वंसक, बस यही दो विचारधारा है मुख्य है,
जो भी समन्वयवादी विचार वाले हैं, वे सृजनात्मक होंगे, जो समन्मेंवय नहीं करना जानते, वह विध्वंसक प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं, एक व्यक्ति के तौर पर, एक सामाजिक प्राणी होने के नाते हमें यह तो समझना ही होगा।
अत्यधिक भौतिकवाद या भोगविलास ने जो हमसे ले लिया है, वह हमारी आंतरिक चेतना, हमारी आंतरिक चेतना अगर जागृत है, तो हम किसी भी कम को करने से पहले उसे कार्य को, जो हम कर रहे हैं उसके परिणाम क्या होंगे, इस पर अवश्य विचार करें।
यह आवश्यक जानने की कोशिश करें, जो भी कदम हमारा है, वह मनुष्यता की ओर है या नहीं? यह सवाल हमें अपने आप से अवश्य पूछना चाहिये, अगर आपका स्वभाव
समन्वय का है, तो आप विपरीत सोच को भी सही तरीके से समझेंगे व इससे जीवन में आसानी आयेगी।
जीवन हमें जीना ही है, मगर हम किस प्रकार समाज में घर में ,परिवार में ,समाज में रहते हैं, वही हमारे व्यक्तित्व को प्रभावशाली
बनाता है।
कोशिश करें, हमसे कोई आहत न हो, परमेश्वर का आंतरिक सुमिरन अवश्य चलने दे, आपकी जी भी पंथ में आस्था है, उसे आप माने।
मस्तिष्क को सदैव खुला रखे, सभी के लिए कार्य करें, ईश्वर या वह शक्ति जो संपूर्ण ब्रह्मांड को चलाती है, हमारा मानसिक दृष्टिकोण ही हमें ऊपर उठाता है, मनुष्यता के नाते अपने कार्यकलाप को हम आपको हम स्वयं परखे, उत्तर आपको अपने भीतर से ही प्राप्त होगा, अन्यत्रनहीं।
संवेदनशील होना ही मनुष्यता की सबसे पहली निशानी है, यंत्रों का उपयोग करते-करते हम यंत्र ना हो, परिवार में किस प्रकार खुशहाली हो, समाज में किस प्रकार सभी खुशहाल हो, ऐसे निरंतर प्रयत्न को हम यथा शक्ति अपने जीवन में आचरण में लाये।
विशेष:- हम अपने आप को जाने, हम क्या करना चाहते हैं? मनुष्यता के नाते हम क्या
बेहतर कर सकते हैं, वह अवश्य देखें। मनुष्यता की पहली सीढ़ी समभाव ही हैं, प्रकृति भी हमें अपने आचरण हमें यही सीख देती है।
आपकाअपना
सुनीलशर्मा
जयभारत
जय हिंद
वंदे मातरम।
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