रिश्ते, संस्कृति व समाज

प्रिय पाठक गण,
    सागर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
     प्रवाह की इस मंगल में यात्रा में आप सभी का स्वागत है, हम सभी किसी न किसी रूप में एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, जिस समय हमारा जन्म होता है, हम नहीं जानते कहां पर होगा?
मृत्यु कब होगी, यह भी हम नहीं जानते ?
       हम जिस भी जगह जन्म लेते हैं, जिस परिवार में, हमारा प्रथम उत्तरदायित्व उस परिवार के प्रति है, फिर जहां हम पले-बढ़े, उसे जन्मभूमि की बेहतरी के लिये हम क्या कर सकते हैं?
       किस प्रकार से सामाजिक वातावरण में हम समरसता का संचार कर सकते हैं, यह दिशाबोध हमें होना आवश्यक है।
       जननी, जन्मभूमि, इन दोनों का ही ऋण हम चाह कर भी नहीं उतार सकते।
     हम कितना भी कर ले, माता-पिता व जन्मभूमि के ऋण से हम कभी मुक्त नहीं हो 
सकते।
      हमें अपने कर्म से कुल का गौरव बढ़ाना चाहिये, परिवार की मान मर्यादा का हमें ख्याल रखना चाहिये, परिवार की मान मर्यादा का मान-सम्मान , वह किस प्रकार के हमारे कर्म द्वारा समाज में कुल का मान बढ़े।
         यह हमारा प्रयास होना चाहिये, नित्य-निरंतर हमारे प्रयास द्वारा किस प्रकार से कुल की ख्याति में अभिवृद्धि हो, यही प्रयास हमें कर देना चाहिये।
     रिश्ते कुछ प्रकृति से हमें प्राप्त होते है, जैसे माता-पिता, भाई, बहनें वह अन्य जोभ  परिवार में रिश्ते हैं।
    कुछ हम स्वयं चुनते हैं, हम अपनी ओर से सदैव ही प्रयास करें, जो भी रिश्ते हम स्वयं 
अपनी मर्जी से चुनते है, उनमें हम पारदर्शिता पूर्ण व्यवहार को प्राथमिकता दे, छल- कपट से दूर रहे, तभी हम मानवीय रिश्तों की खुशबू को बरकरार रख सकते हैं। 
      जहां पर निश्छल भाव होगा, वहां पर स्वमेव ही परमात्मा की उपस्थिति होगी, नित्य प्रति मंगल की हम कामना करते रहे, हमारे कर्म की दिशा भी वही हो।
          हमारी संस्कृति की मूल ताकत जो है,
वह है ,इसकी मानवीय संवेदना, जो भी मानवीय संवेदनाये है, वे ही हमें मनुष्य बनाती 
 है, मानव बनाती है।
         इस प्रकार हम अपने जीवन को परिवार वह समाज के लिए जिये, सामाजिक सद्भाव को प्राथमिकता हमेशा दें, निरंतर चेतनायुक्त रहे। 
       उसे परमात्मा की असीम अनुकंपा को सदैव अपनायें, उसे धन्यवाद प्रेषित करें। 
        अहो भाव से वंदना करें, अपने कर्तव्यों को ईमानदारी पूर्वक निभाये।
      शेष परमात्मा स्वयं देखेंगे, इस सुंदर भाव के साथ हम अपना जीवन उल्लासपूर्वक उसकी कृपा में व्यतीत करें, हम सभी पर, आप सभी पर ईश्वर की अनुकंपा सदैव रहे।
          नीर-क्षीर, विवेक को अपने जीवन में
स्थान दे, अपने जीवन की डोर को उस ईश्वर के हाथों में सौंप दे, फिर वह कल्याण ही करेंगे।
      एक निश्चित कालखंड हम सभी को प्राप्त हुआ है, उसका सदुपयोग करें, हम किस प्रकार से उसे व्यतीत करते हैं, वही हमारे भविष्य का निर्माण करती है, वर्तमान में रहे,
रिश्तों की नाजुक डोर को संभाले रखें, समाज में अपने अच्छे कर्मों द्वारा हम पूजित होते हैं,
स्वकर्म हमारा जो भी है, उसे पुर्ण ईमानदारी मानदारी से हम करें , साथ ही औरों को भी जो हमारे आसपास है, इसकी प्रेरणा प्रदान करें। 
विशेष:- समाज में हम जो भी दे रहे हैं, वही हमें प्राप्त होता है, हम अगर अशांति दे रहे हैं, तो हमें बदले में अशांति ही प्राप्त होगी, अगर हम समरसता,शांति सद्भाव प्रदान कर रहे हैं, तो हमें बदले में वही प्राप्त होगी, शांत चित्त होकर हम चीजों को समझें, जीवन एक निरंतर चलने वाली लंबी प्रक्रिया है, जीवन जटिल होता नहीं, बहुत सरल होता हैं, अहो भाव से उसे जिसमें, परमात्मा को धन्यवाद दें, 
इतना सुंदर जीवन उसने हमें प्रदान किया।





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