परम आश्रय

प्रिय पाठक गण,
   सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
     प्रवाह की इस मंगलमय व अद्भुत यात्रा में आप सभी का स्वागत है।
       हम सभी उसी एक परमपिता के अंश है,
माया के आवरण के कारण हम यह समझ नहीं पाते हैं, भौतिक सुख सुविधाओं की अत्यधिक चमक वह बहुलता ने मानो हमारे भीतर की शुद्धता भीतर तक नष्ट कर दिया है,
इस विश्व में हम सभी किसी न किसी रूप में 
एक दूसरे पर आश्रित है, यह संपूर्ण ब्रह्मांड भी एक दूसरे से सहयोग करता हुआ चालित हैं,
यही परम सत्य है, जिसे हमारे प्राचीन मनीषियों ने अपने अर्थबोध द्वारा जान लिया था, फिर सर्वसाधारण के लिये उन्होंने उसे रहस्य को ग्रंथो व पुराणों में विभिन्न श्रुतियों के माध्यम से कहा।
      परंतु जो ऋषि या मनीषी उसके मूल स्वरूप को जान गये, उनकी बातों को बाद में अपनी बातें मिलकर इसका मूल स्वरूप बदल दिया गया, और यहीं से मनुष्य का चातुर्य, जो वह करना चाहता है, उसे किस प्रकार से मोड़ना है, वह करने लगता है। 
    यह सृष्टि अनंत काल से अपने ही स्वाभाविक नियमों पर ही कार्य करती आ रही है, इसमें तनिक भी संशय  नहीं है।
     भौतिक आवरण अधिक गहरा होने से हम उसे तथ्य को स्पर्श ही नहीं कर पाते हैं, जो की परम चेतना से आबद्ध है।
       कथन भी है सत्यम, शिवम, सुंदरम 
सत्य ही शिव है, और शिव ही सुंदर है।, 
     उसकी कृपा के विविध रूप हमें प्रकृति की उदारता में देखने को मिलते हैं, कैसे वह सहज रूप से सभी का पोषण करती है, किसी से भी भेदभाव नहीं करती। 
      यही तो उसका परम रहस्य है, वह इसका आशय जो भीतरी गहराई में जाकर समझ जाता है, वह इस संसार सागर को जीता हुआ भी इसमें लिप्त नहीं होता, उस परम आश्रय  की शरण में  वह अपना जीवन चलाने लगता है।
        वह समान रूप से सभी का भरण पोषण करता है, वही अविनाशी सत्ता, जिसका कभी भी विनाश नहीं होता, युगों युगों से स्वचालित होकर सब की रक्षा कर रही है। 
       आंतरिक शांति हमें तभी प्राप्त हो सकती है, जब हम उसके परम आश्रय के भीतर चलते हैं, अपने हदय में  उस अविनाशी सत्ता 
को जिसने भी स्थान प्रदान किया, फिर उस परमात्मा के द्वारा वह निमित्त बन जाता है, और फिर उसके द्वारा वहीं घटता है ,जो वह चाहता है, हम सभी एक निमित्त हैं, कौन कब, कहां ,क्या भूमिका निभायेगा, वह तय करने 
वाला भी है, और प्रेरणा प्रदान करने वाला भी। 
     क्या कारण है?  हम चाह कर भी वह नहीं कर सकते जो हम चाहते हैं, हम वही करते हैं जो वह चाहता है, यह बहुत ही सूक्ष्म भेद है,
कुछ तो ऐसा अवश्य है, जो हम सभी की समझ के बाहर है। 
      हम जन्म लेते हैं, एक दिन मृत्यु को प्राप्त होते हैं, मगर इन सब के मध्य का जो जीवनकाल है, वह हमारा अपना है, हम उसे किस प्रकार गुजारते हैं, इस पर ही हमारे भविष्य की नींव है। 
      बुद्धिमानी पूर्वक जगत को हम कैसे जिये,
जब हम यह कला जान लेते हैं, तो हमारे बहुत सारे संशय स्वयं चिन्ह भिन्न हो जाते हैं।
       कोई भी कर्म एक दिन में पूर्ण नहीं होता, एक लंबी प्रक्रिया होती है, उसके उपरांत ही कुछ घटता है, उसके आरंभिक बीज तो हमारे अवचेतन मन में पहले से ही पढ़ चुके होते हैं, जैसे-जैसे हमारी आंतरिक चेतना जागृत होती है, हमें भीतर से आंतरिक शांति का अनुभव होने लगता है। 
       भौतिक संसाधनों का कब, कैसा , कहां क्या उपयोग करना है, भावनात्मक रूप से कब हमें प्रभावित होना है? यह हमारी समझ में आने लगता है, और यह समझ में आ जाना भी उनकी कृपा का ही एक रूप है, जिसे जितने सही रूप में हम समझते जाते हैं, उतना ही हमारा जीवन आसान होने लगता है, जीवन की जो भी गांठे हैं, वह सुलझने  लगती है, धीरे-धीरे हम महाप्रयाण की ओर बढ़ने लगते हैं।
     शनै- शनै हम परमात्मा की कृपा को जीवन में अनुभव करने लगते हैं, उसकी कृपाल के हम पात्र बन जाते हैं, फिर वह जो भी भूमिका हमें प्रदान करें। 
विशेष:- हम सभी उसी के परम आश्रय में है,
           उसकी कृपा के बिना जीवन में कुछ घटता ही नहीं, बस हम उसकी कृपा के पात्र बने रहे, बस यही विनय हम करते रहे, फिर जो भी होगा, वह उसकी कृपा से ही घटेगा।
आपका अपना 
सुनील शर्मा, 
जय भारत 
जय हिंद, 
वंदे मातरम।



0 टिप्पणियाँ: