हमारी संस्कृति

प्रिय पाठक गण,
      सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
     आज हम हमारे समाज में जो विभिन्न विकृतियां देख रहे हैं, उसके मूल में हमारी जो संस्कृति है, उसे हमने हृदय से आत्मसात नहीं किया है, वहीं इसका मूल कारण है। 
          अगर हम जो कह रहे हैं, वही कर भी रहे है, तो हमें भयभीत होने का, विचलित होने का कोई भी कारण नहीं।
         जब हम वाणी से कुछ और कह रहे होते हैं, हमारे मन में कुछ और चल रहा होता है, हमारा आचरण कुछ और होता है, तब इन तीनों का ही आपसी सामंजस्य न होने से , जो हमारे आचरण में त्रुटि का निर्माण होता है,
वह हमारे व्यक्तित्व को भीतर से खंडित करता है। अगर हमारा मन ,वचन व कर्म तीनों में ही सामंजस्य अगर है, तो हम आंतरिक व बाह्य दोनों ही प्रकार से ऊर्जावान रहेंगे।
        हमारे आचरण व कर्म में अगर भिन्नता
हैं, तो वह हमारे व्यवहार द्वारा ही परिलक्षित   हो जायेगी।
       हम जितनी गहराई से हमारी संस्कृति का अध्ययन करेंगे, उतने ही अनमोल मोती हमें प्राप्त हो जायेंगे।
      गीताजी में भी भगवान श्रीकृष्ण जी ने 
भी कर्म योग को ही सबसे अधिक महत्व प्रदान किया है, विपरीत परिस्थितियों उत्पन्न होने पर भी जो व्यक्ति अपना आचरण नहीं बदलता, वह निश्चित ही श्रेय का भागी बनता है।
     हमें सर्वप्रथम अपने आचरण में दृढ़ता लाने का अभ्यास करना चाहिये, उसके पश्चात हम किसी और से उसे करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं, या कह सकते हैं। 
             जितना- जितना हम अपने भीतर की और प्रवेश करते हैं , उतना ही अधिक हम अपने- आप को भी जान पाते हैं, आत्म कल्याण के लिये हमें अपनी आंतरिक प्रवृत्तियों पर गहराई से नजर रखने की, अवलोकन की आवश्यकता है। जितना हम 
गृंथों का स्वयं अध्ययन करेंगे, हमारे प्रज्ञा चक्षु  खुलने लगेंगे, समय तो अपने काल क्रम से चल ही रहा है, हम कितने गतिमान होकर उससे कदम मिला पा रहे हैं।
        समय पर निर्णय करना व उस पर पूर्ण रुपेण अमल करना, यह उस परमात्मा की मंगल कृपा के बिना संभव ही नहीं है।
       हमें अपने जीवन में कुछ मूलभूत सिद्धांतों को अपनाना चाहिये।
      प्रथम, हम जिस भी घर में, परिवार से जुड़े हैं, कभी भी अपने आचरण से उसे परिवार का किसी भी प्रकार से अहित न हो। 
     द्वितीय, जीवन में हम जो भी व्यवहार या
संबंध बनाये, अपनी ओर से पुर्ण ईमानदार व कृतज्ञ रहे।
     तृतीय, समय, परिस्थितियों का सदैव पूर्ण सावधानीपूर्वक आकलन करें। 
    चतुर्थ, हम अपने निजी जीवन में परिवार के अतिरिक्त कुछ ऐसे संबंध अवश्य विकसित करें, बाली दो या चार संबंध हो, मगर वे इस प्रकार से हो, हम उन्हें व वे हमें किसी भी समय में पुकार सके, हम उनकी मदद को व वे
हमारी मदद को हमेशा तैयार रहे। 
     जीवन काल में मात्र अगर हम इन चार सूत्रों पर भी पूर्ण ईमानदारी से कार्य अगर करें, तो हमें कभी भी निराशा का सामना नहीं करना पड़ेगा। 
     बस ,हमें पूर्ण ईमानदारी से इन सूत्रों पर कार्य करना है। 
      इतना भी अगर हम कर सके तो वह परमात्मा सदैव हमारे साथ है ही, यह मानकर चलें।
    आंतरिक श्रद्धा व विश्वास के बल पर हम अनेक उपलब्धियां को हासिल कर सकते हैं। 
   नित्य निरंतर हम अपने कार्यों की समीक्षा अवश्य करें। 
    परमपिता परमेश्वर सब का कल्याण करें, 
सबके मानस में दिव्य प्रेरणा प्रदान करें।
विशेष:-  हम अपना जो भी नियत कर्म, इसका हमने स्वयं बीड़ा उठाया है, उसे पूर्ण सामर्थ्य से, ईमानदारी पूर्वक निभाने का प्रयास अवश्य करें, शीशा परमात्मा पर छोड़ दे, उसकी कृपा के पात्र बनकर रहे, जब भी अहंकार का प्रवेश हमारे मन में हो, उसे याद करें। वह मां से अहंकार को मिटाते चले, उसकी अनमोल कृपा को धारण करें। 
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत, 
जय हिंद, 
वंदे मातरम। 



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